Saturday, 12 November 2011

शिक्षा के अधिकार के मायने

चिराग तले अंधेरा देखना हो तो मेवात पधारिए। देश की राजधानी की नाक तले और गुडग़ांव की अति आधुनिक इमारतों के बगल में स्थित मेवात का इलाका इंडिया और भारत के बीच खाई की जीती-जागती मिसाल है। देश के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद इसी मुस्लिम बाहुल्य इलाके से सांसद चुने गए थे। लेकिन सच्चर कमेटी ने पाया कि पूरे देश में इसी इलाके के मुस्लिम शिक्षा के लिहाज से सबसे वंचित हैं। सन् 2001 में महिलाओं में साक्षरता महज 20 फीसदी थी, गांव की मेव महिलाओं में तो पांच फीसद भी नहीं। ग्यारह लाख की आबादी वाले जिले में एक भी सरकारी स्कूल नहीं है, जिसमें बारहवीं कक्षा में साइंस पढ़कर कोई बच्चा डॉक्टर बनने का सपना पाल सके।

इसी मेवात से आज भारत सरकार देश भर में शिक्षा का अभियान कार्यक्रम शुरू कर रही है। पिछले कुछ साल से मौलाना आजाद का जन्मदिवस ११ नवंबर देश भर में शिक्षा दिवस की तरह मनाया जा रहा है। इस बार सरकार ने हर राष्ट्रीय समारोह को दिल्ली में मनाने की भौंडी आदत छोड़ते हुए मेवात जिले के कस्बानुमा मुख्यालय नुह को केंद्र बनाया है। लोकसभा अध्यक्ष, केंद्रीय शिक्षा मंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री समेत मंत्रियों-संतरियों और अफसरशाही का पूरा अमला मेवात पहुंचेगा और देश में शिक्षा के हक को हर बच्चे तक पहुंचाने का संकल्प लेगा। यह देश में शिक्षा की जमीनी हकीकत से दो-चार होने का अवसर है। पिछले कुछ समय से हरियाणा सरकार ने इस इलाके में शिक्षा सुधार के कुछ बेहतरीन प्रयास किए हैं। सरकारी व्यवस्था के भीतर रहते हुए बदलाव की इन कोशिशों से भी सीखने का अवसर है।

आज का दिन महज एक और शिक्षा दिवस नहीं है। सन् 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद तीन साल के भीतर देश के सभी स्कूलों को कानून के मुताबिक न्यूनतम सुविधाएं देनी होंगी। बेशक यह कानून अपने आपमें संतोषजनक नहीं है, लेकिन कम से कम पहली बार सरकार ने शिक्षा की न्यूनतम सुविधाओं की जिम्मेदारी को कानूनी मान्यता दी है। यह कानून अनिवार्य बनता है कि हर स्कूल में ठीक-ठाक इमारत हो, खेल और पुस्तकालय की सुविधा हो, हर कक्षा के लिए कमरा हो, बिना कागजी झमेले के 6 से 14 साल के बीच हर बच्चे को उम्र के मुताबिक दर्जे में प्रवेश मिले, कक्षा में जरूरत से ज्यादा बच्चे न हों, शिक्षक अपना सारा ध्यान फिजूल की ड्यूटी की बजाय शिक्षा पर लगाएं। हर बच्चा बिना भय और भेद के अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सके। अगर 31 मार्च 2013 तक देश के हर स्कूल को इस स्तर तक पहुंचाना है तो आने वाला एक साल परीक्षा की घड़ी है।

खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि फिलहाल देश के स्कूल इस न्यूनतम के बहुत नीचे हैं। कानून को बने एक साल गुजरने के बाद भी सिर्फ 15 राज्यों ने यह कानून लागू करने का पहला कदम उठाया था यानी इसकी नियमावली बनाई थी। दिल्ली की सरकार ने भी यह नियम नहीं बनाए हैं। देश के दो-तिहाई स्कूलों में न्यूनतम से भी कम कमरे हैं। आधे स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है, 40 फीसदी में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं हैं। 20 फीसदी शिक्षकों के पास न्यूनतम डिग्री नहीं है। ये तो आंकड़ों की बात है। अगर पढ़ाई की गुणवत्ता की बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। प्रथम संगठन का सर्वेक्षण ‘असर’ हर साल गांव के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की दुर्दशा की कहानी पेश करता है। एक और अध्ययन से जाहिर होता है कि स्कूल में साल भर में बच्चों की शिक्षा के स्तर में मामूली-सा सुधार होता है। आज मंत्री-अफसर मेवात में जो शपथ लेंगे, उस पर सच्चाई से अमल करना आसान न होगा।

इसकी असली वजह पैसे की कमी नहीं है। आज देश में शिक्षा सुधार की विडंबना यह है कि आजादी के बाद पहली बार सरकारी खजाने में स्कूली शिक्षा के लिए कुछ पैसा है। पर्याप्त नहीं है, लेकिन इतना जरूर है जितना पिछले साठ साल में नहीं था। स्कूली शिक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है और उनकी माली हालत अच्छी नहीं रहती, लेकिन सर्वशिक्षा अभियान के तहत केंद्र ने राज्यों को शिक्षा के लिए काफी पैसा भेजा है। दिक्कत यह है कि जो पैसा मिलता है, वो भी खर्च नहीं हो पाता और जो खर्च होता है उसका सही इस्तेमाल नहीं होता। स्कूली शिक्षा का सरकारी ढांचा चरमरा गया है, क्योंकि शिक्षक का मनोबल और स्वाभिमान चूर हो चुका है। एक जमाने में ‘गुरुजी’ का सम्मान पाने वाला शिक्षक आज सिर्फ ‘मास्टर’ है, समाज की दुत्कार और अफसरों की फटकार का शिकार है। बीएड हमारी व्यवस्था की सबसे सस्ती और हास्यास्पद डिग्री बन चुकी है। आज भी इस देश में लाखों ईमानदार शिक्षक हैं, लेकिन हर कोई अपने को असहाय महसूस करता है। समाज को सरकारी स्कूल की परवाह नहीं है। बिजली, सड़क और पानी तो चुनावी मुद्दा बनता है, लेकिन शिक्षा कोई मुद्दा नहीं बन पाती।

इस शिक्षा दिवस से एक साल तक ‘शिक्षा का हक अभियान’ चलेगा। शुरुआत आज हर स्कूल में एक विशेष सभा से होगी, जिसमें प्रधानमंत्री का बच्चों के नाम विशेष संदेश पढ़कर सुनाया जाएगा। अभियान का असली उद्देश्य इन प्रतीकों से आगे बढ़कर हर गांव-मोहल्ले में शिक्षा के हक के बारे में जन-जागृति पैदा करना है। यह काम सरकारी अमले के बस का नहीं है। शिक्षा का अधिकार सिर्फ सरकारी फाइलों में दबकर न रहे, महज इमारतें बनाने या रजिस्टर में दाखिला करवाने तक सीमित न हो जाए, इस उद्देश्य से यह अभियान देशभर में नागरिकों और जन-संगठनों को जोड़ेगा। कार्यक्रम यह है कि देश के सभी 13 लाख स्कूलों में स्वयंसेवकों की टोली पहुंचे, संवाद स्थापित करे और उस स्कूल में शिक्षा के अधिकार को मार्च 2013 तक साकार करने की तैयारी करे।

क्या यह अभियान सचमुच देशभर में पहुंचेगा या सिर्फ सरकारी कवायद बनकर रह जाएगा? यह एक सरकारी योजना का ही सवाल नहीं है। शिक्षा आज समाज में असमानता के विरुद्ध सबसे बड़ा औजार है। इसलिए स्कूली शिक्षा का वर्तमान भारत के भविष्य से जुड़ा है।

आज जो चिराग मेवात में जलेगा, उसकी रोशनी कहां तक पहुंचेगी? इस चिराग को जलाने वाले इस देश के शासक या इसे जलता देखने वाले पढ़े-लिखे लोग कब अपने मन के अंधेरे से बाहर निकलेंगे?
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