Tuesday 19 July 2011

नीति की विडंबना

शिक्षा का अधिकार कानून लागू करके प्रदेश सरकार ने केंद्र की नीतियों का पालन करने में जैसी तत्परता दिखाई वैसी ही संजीदगी शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए दिखाई जाती तो वह वास्तव में प्रशंसा की हकदार होती। शिक्षा केंद्रों का महत्व तभी तक है जब तक वे बिना स्वार्थ शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में सक्रियता दिखाते रहें। व्यावसायिकता का मुलम्मा जब शिक्षा के मूल स्वरूप में विकृति लाने लगे तो सरकार को गंभीर होने में विलंब नहीं करना चाहिए। शिक्षा उदारता का यह तात्पर्य नहीं कि मूल उद्देश्य से खिलवाड़ करने की खुली छूट मिल जाए। खुलेपन को यदि मूल स्वरूप को छिन्न-भिन्न करने की आजादी मान लिया जाए तो अंकुश तात्कालिक आवश्यकता बन जाता है। शिक्षा को व्यावसायिक रूप देने की आवश्यकता हर स्तर पर महसूस की गई लेकिन इसे शिक्षा केंद्रों को दुकान बनाने की शासन-प्रशासन की अनुमति कैसे मान लिया गया। कुछ-कुछ ऐसा ही हाल हरियाणा में जेबीटी व बीएड कॉलेजों का प्रतीत हो रहा है। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा नेशनल काउंसिल ऑफ टीचर्स एजुकेशन (एनसीटीई)को दिया गया निर्देश तथाकथित व्यावसायिक शिक्षा पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। हाईकोर्ट ने इन कॉलेजों का निरीक्षण करके उसकी जांच रिपोर्ट सौंपने को कहा है। प्रदेश में हर वर्ष निजी विद्यालयों की मान्यता को लेकर बवंडर उठता है। दिसंबर के अंतिम दिनों से शुरू होकर यह मई-जून तक असर दिखाता है फिर शासनादेश आता है कि एक वर्ष तक और मान्यता बढ़ा दी गई। इसी तर्ज पर साल में एक बार सरकार की ओर से बयान जारी होता है कि शिक्षा का प्रसार होगा, व्यावसायिक शिक्षा के मापदंडों से खिलवाड़ नहीं होने दिया जाएगा परंतु अंतत:स्थिति वह बन चुकी है जिसे सकारात्मक या सार्थक नहीं माना जा सकता। बीएड कॉलेजों के रूप में केंद्रों की इतनी बड़ी जमात तैयार हो चुकी है जो हर वर्ष हजारों शिक्षित बेरोजगार अध्यापकों की फौज खड़ी कर रही है। इतने बीएड व जेबीटी कॉलेज खोलने की अनुमति प्रदेश व केंद्रीय स्तर पर कैसे मिल गई। क्या यह सहज सुलभ है?क्या यह मात्र पैसे का खेल है। अनुमति देने से पहले क्या किसी सामाजिक-आर्थिक पहलू को नहीं परखा जाता। इंजीनियरिंग कॉलेजों के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही महसूस किया जा रहा है।
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