हरियाणा में शिक्षा विभाग की स्थानांतरण नीति अनिश्चित रही है। इसमें बार-बार बदलाव भी इसी अवधारणा की पुष्टि करते हैं। स्टेट व जिला कैडर पर नीतियों में चंचलता, अस्थिरता एवं अव्यावहारिकता का प्रत्यक्ष प्रभाव शैक्षणिक परिदृश्य पर देखा जा सकता है। सरकार ने नई व्यवस्था के तहत अब स्कूलों की जरूरत के हिसाब से स्थानांतरण करने का फैसला किया है जो निश्चित तौर पर व्यावहारिक और शिक्षा स्तर में वृद्धि में सहायक सिद्ध होगा। देर से ही सही पर शिक्षा विभाग को यह अहसास तो हुआ कि अध्यापकों का एक बड़ा वर्ग जुगाड़ करके अपने घर के आसपास स्थानांतरण करवा कर अधिकतम अवधि तक वहां टिका रहता है। शिक्षा स्तर की समृद्धि ऐसे मामलों में गौण हो जाती है। मूल उद्देश्य, अपेक्षा एवं दायित्व से भटक कर कम्फर्ट जोन में रहने की शिक्षकों की आदत का संज्ञान लेते हुए सरकार ने स्कूलों की जरूरत के हिसाब से प्रदेश में किसी भी जिले में स्थानांतरण करने की नीति बना कर सराहनीय प्रयास किया है। देखने वाली बात यह है कि क्या नए मापदंडों पर सख्ती से अमल हो पाएगा? विभाग की नई नीति से हालांकि हजारों अध्यापकों में बेचैनी देखी जा रही है परंतु शिक्षा विभाग के समक्ष प्रश्न भी है कि अधिकारी कहीं अपने स्तर पर इसकी व्याख्या न करने लगें। दंपति, विकलांग, महिला, तलाकशुदा, बीमारी या विशेष परिस्थिति के मापदंड तो रहे लेकिन अंतिम फैसला अधिकारी की मर्जी पर ही निर्भर रहा। नीति या नियम के स्वरूप व प्रकृति में विकृति तभी आती है जब उसमें छेड़छाड़ की पर्याप्त गुंजाइश हो। सरकार लाख सफाई दे परंतु यह सत्य है कि शिक्षा विभाग में स्थानांतरण पात्रता से कहीं अधिक राजनैतिक दखल से ही संभव है। इस छवि को बदलना होगा। यह विडंबना है कि ग्रामीण या दूरदराज के सरकारी स्कूलों में अध्यापक जाना ही नहीं चाहते। खास तौर पर मेवात को अब तक सरकारी कर्मचारी कालापानी ही मानते हैं। हालांकि मेवात क्षेत्र के लिए राज्य व केंद्र सरकार ने दिल खोल कर विभिन्न योजनाओं के लिए धन आवंटन किया है लेकिन अवधारणा बदलने में अभी और समय लगेगा। फिलहाल शिक्षा विभाग को अपनी स्थानांतरण नीति के प्रति कर्मचारियों में विश्वास जगाना होगा। इसमें कसावट लाने के साथ स्थायित्व भी जरूरी है।