चार दिन पूर्व एचटेट परीक्षा में विलंब और फिर अध्यापकों के पदोन्नति कोटे के पद न भरे जाने पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की टिप्पणी से स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि शिक्षा विभाग में सबकुछ ठीक-ठीक नहीं चल रहा। न्यायालय में शिक्षा विभाग की ओर से स्वयं कहा गया था कि अधिकतर रिक्त पद प्रमोशन कोटे के तहत खाली हैं। उच्च न्यायालय ने हालांकि प्रदेश सरकार को एक वर्ष का समय भी दिया था परंतु हाल यह है कि अवधि बीत जाने के बाद भी हजारों पद रिक्त पड़े हैं। राज्य में पदोन्नति प्रक्रिया की जटिलताएं दूर करने पर सरकार के सलाहकार और नीतियों के पैरवीकार कभी संजीदा दिखाई नहीं दिए। जेबीटी से एसएस टीचर या मास्टर से लेक्चरर के पद पर पदोन्नति के लिए पहले आवेदन प्रिंसिपल को दिया जाता है। उसके बाद खंड शिक्षा अधिकारी और जिला शिक्षा अधिकारी से होते हुए फाइल पहुंचती है डायरेक्टर स्कूल एजुकेशन के पास। पूरी प्रक्रिया की सबसे बड़ी बाधा है पिछले दस साल की एसीआर यानी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट की अनुप्लब्धता और उस पर दर्ज आपत्तियां। यदि एक वर्ष की एसीआर भी गायब मिली तो समझो पदोन्नति की फाइल गई ठंडे बस्ते में। यदि एससीआर में कोई प्रतिकूल टिप्पणी दर्ज पाई गई तो गाड़ी फिर पटरी से उतरी समझिए। चूंकि पदोन्नति (एसीपी) की अवधि 10 वर्ष है। यदि इसके बाद भी पदोन्नति न मिले तब पे-स्केल तो मिल ही जाता है पर शिक्षा ढांचे के विभिन्न पायदानों और सोपानों का क्षरण निश्चित रूप से शुरू हो जाता है। पदोन्नति के मानकों में पिछले दस वर्ष के परीक्षा परिणाम भी शामिल हैं। एसीआर को गड़बड़झाले से बचाने के लिए कोई सुरक्षा कवच भी नहीं। यहां तक माना जा रहा है कि संबंधित लिपिक से संबंध मधुर न रहें तो कुछ भी हो सकता है। पदोन्नति नीति की पुन: समीक्षा तत्काल होनी चाहिए। विभाग के सभी शीर्ष अधिकारी मिल बैठ कर उन उपायों पर गहन चर्चा करें कि वर्तमान और भावी प्रक्रिया में जटिलताएं न्यूनतम कैसे हों। एक निश्चित अंतराल के बाद विभिन्न पहलुओं की पड़ताल हो और अव्यावहारिक प्रावधानों, अवरोधों को हटाया जाए। शिक्षा सतत प्रक्रिया है। सर्व शिक्षा अभियान का लक्ष्य भी महत्वाकांक्षी है पर उसका आधार बनने से लेकर गति तेज करने वाले उत्प्रेरक के रूप में शिक्षा नीति को भी प्रगतिशील बनाना होगा। जंग लगी नीति और काई लगी व्यवस्था से किसी सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।