Monday, 25 July 2011

सत्ता के शब्दजाल और लोकपाल

सत्ता के शब्दजाल और लोकपाल

देश में एक प्रभावी और स्वायत्त लोकपाल से कौन डर रहा है? भ्रष्टाचार से दुखी आम आदमी या भ्रष्टाचार में लिप्त सत्ता वर्ग और उसके कृपापात्र? जिस समय देश में "कैसा लोकपाल चाहिए" पर बहस होनी चाहिए, उस समय जानबूझकर ऐसे मुद्दे उठाए जाते हैं जो बहस को मूल मुद्दे से दूर ले जाएं. अन्ना हज़ारे नाम के मौजी फकीर के पीछे जिस तरह हर उम्र हर वर्ग के लोग खड़े हो रहे हैं उससे आखिर किसको डर लग रहा है? अन्ना हज़ारे कह रहे हैं कि अगर सरकार लोकपाल बिल में आम आदमी को भ्रष्टाचार से राहत दिलाने वाले प्रावधान नहीं लाती है तो 16 अगस्त से फिर अनशन होगा. अन्ना की बात को अनसुना कर सारी बहस को सिर्फ तीन शब्दों में अटका दिया जा रहा है - प्रधानमंत्री, संसद और जज. दुन्हाई दी जा रही है कि संसद की महिमा, प्रधानमंत्री की गरिमा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी. यह सत्ता का शब्दजाल है. 63 साल से लोकतंत्र के नाम पर जनता को छलने का काम इसी तरह के शब्दजालों के सहारे हुआ है. इस ओर जेपी ने उंगली उठाई थी अब अन्ना ने उठाई है. अन्ना की आवाज़ को अगर देश के आम आदमी ने सुन लिया तो यह शब्द जाल टूट जाएगा. अन्ना की मांग में प्रधानमंत्री, संसद और जजों के भ्रष्टाचार से भी ज्यादा अहमियत आम आदमी को रोज़ाना के भ्रष्टाचार से राहत दिलवाने को दी गई है. लेकिन इसे लेकर किसी दिग्गज या मंत्री की कोई टिप्पणी नहीं आती. "आम आदमी के साथ" के नारे वाली पार्टी आम आदमी के सवाल की ओर ध्यान नहीं देना चाहती.  इसीलिए छपटाहट और बौखलाहट है.  

प्रधानमंत्री, जज और सांसद का भ्रष्टाचार लोकपाल की जांच के दायरे में आना ज़रूरी है. कमरतोड़ मंहगाई और संसाधनों की कमी जैसी समस्यायों का बीजराक्षस यहीं है. लेकिन उससे भी कहीं ज़रूरी है थानेदार, तहसीलदार, बीडीओ, पटवारी, गांव गांव तक के अस्पताल स्कूल, सड़कों के भ्रष्टाचार की जांच लोकपाल या लोकायुक्तों के दायरे में आए. ज़िलों के कलेक्टर, एसपी, नगर निगमों और पंचायतों के नेता और अफसरों का भ्रष्टाचार लोगों की रोज़ाना की ज़िंदगी को प्रत्यक्ष रूप से नर्क बनाता है. छोटे कस्बों या गांवों में रिश्वत देकर भी सरकारी दफ्तरों में काम करा लेने को एक उपलब्धि माना जाता है. अन्ना हज़ारे के जनलोकपाल में मांग की जा रही है कि इस सबके खिलाफ आम आदमी शिकायत करे तो उसकी निष्पक्ष जांच हो, एक साल में जांच पूरी हो और दोषी चाहे अधिकारी हो, नेता या कोई ठेकेदार, अगले एक साल में मुकदमा पूराकर उसे जेल भेजा जाए. अन्ना के आंदोलन को देश भर में जो जनसमर्थन मिला है उसकी वजह यही है कि लोग रोज़ाना की ज़िंदगी में भ्रष्टाचार से राहत की उम्मीद देख रहे हैं. 
सत्ता में बैठे लोग और उनके बहुत से कृपापात्र दुहाई देने में लगे हैं -  कि भारत तो एक विशाल देश है, इतनी बड़ी आबादी में लोकपाल क्या कर लेगा? अगर लोकपाल-लोकायुक्तों के दायरे में जनशिकायतों और निचले स्तर के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की जांच को भी शामिल कर लिया गया तो वह काम के बोझ से दब नहीं जाएगा? ऐसी बहुत सी शंकाएं  जनलोकपाल बिल के प्रस्तावों को समझने से निर्मूल हो जाती हैं. लेकिन एक सवाल यह खड़ा होता है कि क्या भारत की विशालता यहां के लोगों के लिए अभिशाप है? क्या एक लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फ इसलिए कदम नहीं उठाए जा सकते क्योंकि बड़ी आबादी के लिए एक बड़े तंत्र की ज़रूरत पड़ेगी? केंद्र सरकार के 40 लाख, पब्लिक सेक्टर के 20 लाख और राज्य सरकारों के 80 लाख कर्मचारियों वाले देश में 20 हज़ार कर्मचारियों वाली लोकपाल संस्था के लिए इतना हाय तोबा? क्या लोकतंत्र नेताओं और अफसरों का भ्रष्टाचार झेलने के अभिशाप का नाम है? क्या आज़ादी के 63 साल बाद हमारे लोकतंत्र में इतना साहस भी नहीं है कि वह खुलकर कह सके, "चाहे जितना बड़ा तंत्र क्यों न बनाना पड़े, हम सुनिश्चित करेंगे कि हर आदमी को भ्रष्टाचार से राहत मिल सके". ऐसा कहने और करने के लिए साधन नहीं इच्छा शक्ति चाहिए. और सत्ता या उसके आसपास के गलियारों में रेवड़ियां लूटने वालों के पास इच्छा शक्ति का अभाव रहता ही है. 
समझने की बात यह है कि अन्ना द्वारा प्रस्तावित कानून के मुताबिक लोकपाल कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक पूरी संस्था का नाम होगा. जिसमें जांच विभाग होगा, अदालत में मुकदमा चलाने के लिए अभियोजन विभाग होगा, और इनकी निगरानी के लिए एक अध्यक्ष सहित 11 सदस्यीय पैनल होगा. यह व्यवस्था केंद्र सरकार के 40 लाख कर्मचारियों के लिए होगी. इसी तर्ज़ पर हरेक राज्य में लोकायुक्त संस्था होगी. 
देश का कोई भी नागरिक लोकपाल या लोकायुक्त के पास केंद्र अथवा राज्य के किसी कर्मचारी अथवा जनप्रतिनिधि के भ्रष्टाचार की शिकायत लेकर जा सकेगा. जांच विभाग अधिकतम एक साल में जांच पूरी कर अभियोजन पक्ष को देगा जो ट्रायल कोर्ट में मुकदमा चलाएगा. एक साल में मुकदमे की सुनवाई पूरी करने के लिए आवश्यक संख्या में ट्रायल अदालतें स्थापित करना सरकार की बाध्यता होगी. यह संख्या सरकार और लोकपाल मिलकर तय कर सकते हैं. अगर शिकायत प्रधानमंत्री, जजों या सांसदों के खिलाफ है तो जांच शुरु करने से पहले लोकपाल की सात सदस्यीय बैंच, जिसमें विधिक पृष्टभूमि वाले सदस्य अधिक होंगे, तय करेगी मामले की जांच होनी चाहिए अथवा नहीं. इसके अलावा शिकायतों पर जांच खुद लोकपाल के अधिकारी ही शुरू कर सकेंगे. 
एक अहम सवाल उठाया जा रहा है कि यह लोकपाल किसके प्रति जवाबदेह होगा? क्या यह भ्रष्ट नहीं होगा? इसी क्रम में कहा जा रहा है कि ऐसा लोकपाल तो समयतर सरकार बन जाएगा. लोकतंत्रिक संस्थाओं के ऊपर बैठ जाएगा ....अदि आदि. चारा घोटाले के लिए मशहूर लालू यादव तो कह रहे हैं कि यह संसद, सांसदों और अदालतों के ऊपर अफसरों को बिठाने की साज़िश है. अंगे्रज़ी के एक अखबार ने तो इसे तानाशाह और सर्वशक्तिशाली राक्षस तक की उपमाएं दे डाली हैं.  इस सबके पीछे बुनियादी सवाल यही है क्या अन्ना द्वारा प्रस्तावित लोकपाल संसद, सरकार या जनता के प्रति उत्तरदायी होगा अथवा यह एक निरंकुश व्यवस्था होगी? प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के मुताबिक लोकपाल के सदस्य सरकार द्वारा न तो नियुक्त किया जाएंगे और न ही सरकार यानि प्रधानमंत्री या उनके मंत्री किसी सदस्य को हटा सकेंगे. सरकार के मंत्रियों का एक बड़ा मलाल यही है कि देश के अधिकांश आयोगों की तरह इसे राजनीतिक पसंद के लोगों से नहीं भरा जा सकेगा. लेकिन भ्रष्टाचार की निष्पक्ष जांच और खुद लोकपाल को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए यह सबसे अहम कदम है. जनलोकपाल बिल के मुताबिक किसी लोकपाल सदस्य को हटाने की प्रक्रिया सरकार की आंख टेढ़ी होने पर नहीं, बल्कि आम आदमी की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट में शुरू हो जाएगी और इसे तीन महीने में पूरा करना होगा. यानि लोकपाल सरकार के प्रति नहीं देश के आम आदमी के प्रति ज़िम्मेदार होगा. 
शक्तियों के रूप में देखें तो लोकपाल को सिर्फ वही शक्तियां दी जा रही हैं जो आज सीबीआई को प्राप्त हैं. लेकिन सीबीआई की कमी यह है कि वह केंद्र सरकार के अधीन आती है और केंद्र सरकार के ही आदेश पर काम करती है. कुल मिलाकर अन्ना की मांग इतनी सी ही है कि सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को सरकार के चंगुल से निकालकर लोकपाल नामक एक भ्रष्टाचार निरोधक संस्था बनाई जाए. अंतर सिर्फ तीन हैं - पहला यह कि वह स्वतंत्र हो, यानि अभी सीबीआई केंद्र सरकार की निगरानी में काम करती है, तब वह लोकपाल के सदस्यों के पैनल की निगरानी में काम करेगी. दूसरा वह समय बद्ध काम करेगी. अभी सीबीआई का काम समय बद्ध नहीं होता, तब उसे एक साल में जांच पूरी करनी होगी. और तीसरा उसका कामकाज पारदर्शी होगा. यानि हरेक जांच के बाद तमाम दस्तावेज़ आम लोगों को उपलब्ध होंगे. इसी के साथ साथ लोकपाल की वित्तीय स्वतंत्रता भी महत्वपूर्ण है. अगर सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा को सीबीआई से अलग कर लोकपाल बना दिया जाए और जनभागीदारी से चुने गए लोकपाल सदस्यों की निगरानी में काम कराया जाए तो सीबीआई के वर्तमान अफसर भी कमाल दिखा सकते हैं. क्योंकि सीबीआई के यही अफसर जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर काम करते हैं तो मंत्री, संतरी और सांसद तक जेल जाने लगते हैं. जब सीबीआई के अतिरिक्त लोकपाल को कोई ताकत ही नहीं दी जा रही है तो उसका सर्वशक्तिमान बनने का सवाल ही नहीं उठता. ध्यान सिर्फ इतना रखना होगा कि लोकपाल के सदस्यों का चयन ईमानदारी और जनभागीदारी से हो.
जब अन्ना ये कहते हैं कि लोकपाल के सदस्यों के चयन में सरकार की नहीं बल्कि जनता की भागीदारी होगी तो सवाल उठाया जा रहा है कि जनता की भागीदारी कहां है? चयन समिति में तो जज, नेता और और संवैधानिक पद पर बैठे दो लोग हैं? पूछा जा रहा है कि क्या लोकपाल के लिए भी चुनाव होंगे? इस सवाल के पीछे चुनाव प्रक्रिया को ही लोकतंत्र मानकर जीने की मानसिकता काम कर रही है. हर उम्मीदवार के बारे में जनता की राय मांगना और उस राय को चयन प्रक्रिया में पूरी तवज्ज़ो देने से भी तो जनता की भागीदारी हो सकती है. दुनिया के कई देशों में जनभागीदारी से इस तरह की नियुक्तियां की जा रही हैं और ये सिर्फ सत्तापक्ष द्वारा मनमाने तरीके से किए गए चयन से कहीं बेहतर साबित हो रही हैं. "जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए" शासन की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए इससे बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकती कि तमाम महत्वपूर्ण नियुक्तियों पर जनता की राय लेने और उसके मुताबिक फैसले लेने के आसान तरीके बनाए जाएं. जनलोकपाल भारत का पहला कानून होगा जिसके प्रमुख लोग सत्ता पक्ष की मेहरबानी से नहीं जनता की राय के आधार पर कुर्सी पाएंगे. 
कपिल सिब्बल जैसे मंत्री या उनके शुभचिंतकों के लिए यह शोभा तो नहीं देता लेकिन जनलोकपाल के बिल के बारे में वे कई तरह के झूंठ खुलेआम बोल रहे हैं. जैसे कहा जा रहा है कि जिस देश में शिक्षा का बजट छह फीसदी से भी कम हो वहां एक या आधा फीसदी बजट लोकपाल को कैसे दिया जा सकता है. पहली बात तो जनलोकपाल में लिखा है कि लोकपाल का बजट भारत के कंसोलिटेड फंड से आएगा और किसी भी हालत में यह देश के भारत सरकार के सालाना बजट के 0.25(दशमलव दो पांच) प्रतिशत से अधिक नहीं होगा. यानि कि 1 फीसदी या आधा फीसदी के बयान कोरे झूंठ हैं. दूसरे इसे सरकार की मेहरबानी पर छोड़ दिया गया तो मंत्रालयों से जांच अधिकारियों के यात्रा बिल तक मंज़ूर नहीं होंगे. दूसरी बात यह भी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, और गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लिए जाने दिए जाने वाले बजट का एक बड़ा भाग आज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है. अगर इन सबको भ्रष्टाचार के दीमक से बचाना है तो इस पर खर्चे से हिचकना कैसा?
यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि अन्ना द्वारा प्रस्तावित लोकपाल सिर्फ अन्ना या उनके पांच साथियों ने नहीं बनाया है. अन्ना के चार साथियों, शांति भूषण, अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण, जस्टिस संतोष हेगड़े ने मिलकर कानून का पहला ड्राफ्ट तैयार किया था. इसके बाद हज़ारों सभाओं, जनचर्चाओं से मिले सुझावों को इसमें जोड़ा गया है. यहां तक कि बहुत से ईमानदार आइएएस, आईपीएस अधिकारियों ने इस कानून को बनाने में मदद की है. वकीलों और रिटायर्ड जजों ने इसमें सहयोग किया है. इतनी सारी चर्चाओं के बाद इसके ड्राफ्ट को 13 बार संशोधित किया गया. तब जाकर, अन्ना ने सरकार से कहा कि आप जो लोकपाल कानून बना रहे हैं वह कागज़ी है. अन्ना ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखे हैं, उनमें एक एक बिंदू पर विश्लेषण करके बताया गया है कि सरकारी ड्राफ्ट में क्या कमियां हैं और उनकी जगह क्या प्रावधान डाले जाने चाहिएं. लेकिन सरकारी अहंकार के सामने अपनी बात सुनवाने तक के लिए अन्ना को अनशन करना पड़ा. 
यहीं पर यह सवाल भी उठता है कि अन्ना या उनके साथी भला किस तरह सिविल सोसाईटी का प्रतिनिधित्व करते हैं. हकीकत तो यह है कि अन्ना या आंदोलन के उनके किसी साथी ने कभी कहा ही नहीं कि वे किसी सिविल सोसाईटी का प्रतिनिधित्व करते हैं. यह सरकार और कुछ मीडियाकर्मियों द्वारा रचा गया शब्द है. अन्ना ने कभी सरकार से यह कहकर बात नहीं कि हम सिविल सोसाईटी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. जनलोकपाल आंदोलन से जुड़ा हर व्यक्ति, एक ऐसे नागरिक के रूप में इससे जुड़ा है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ करना चाहता है. जिन्हें अन्ना का रास्ता अच्छा लगता है वे उनके साथ मिलकर सरकार से एक बेहतर कानून की मांग कर रहे हैं. इसलिए यह सवाल उठाना ही बेमानी है कि अन्ना किस सिविल सोसाईटी का प्रतिनिधित्व करते हैं और किस तरह करते हैं?
कुल मिलाकर देखें तो देश एक बेहद नाज़ुक दौर में है. मंहगाई, संसाधनों की कमी, नक्सलवाद और तमाम तरह की छीना झपटी के मूल मुद्दों में भ्रष्टाचार एक अहम भूमिका निभा रहा है. लोकपाल कानून बनाने से इन तमाम समस्याओं का समाधान हो जाएगा, या रामराज आ जाएगा ऐसा भी नहीं है. लेकिन इन समस्याओं के निदान की दिशा में यह एक  आवश्यक कदम है. और इसकी ज़रूरत पूरे देश को है. चंद भ्रष्ट लोगों के शब्दजाल से इसकी आवश्यकता कम नहीं हो जाती.
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