पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले से 20 हजार अतिथि अध्यापकों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया है। प्रदेश सरकार की तमाम दलीलें हाईकोर्ट को संतुष्ट करने में विफल रहीं। 31 मार्च 2012 के बाद गेस्ट टीचरों को सेवा विस्तार नहीं मिलेगा और नई नियुक्ति पर भी रोक लग गई है। प्रदेश सरकार की नीतियों में कहीं न कहीं दूरदर्शिता के अभाव के कारण ही गेस्ट टीचरों के लिए यह अप्रिय स्थिति पैदा हुई है। 2005 के बाद हर बार एक वर्ष का सेवा विस्तार दे कर सरकार तात्कालिक उपाय तो करती गई, परंतु दीर्घावधि के लिए कोई आधार तैयार नहीं किया गया। सेवा विस्तार के साथ क्रमबद्ध तरीके से हर वर्ष कुछ अतिथि अध्यापकों का स्थायी समायोजन करा दिया जाना चाहिए था। छह वर्ष का समय कम नहीं होता। सरकार की प्रशासनिक दक्षता और सामाजिक-आर्थिक प्रतिबद्धता का तकाजा यही था कि समयबद्ध तरीके से किसी तार्किक परिणति तक पहुंचा जाता। इतनी भीड़ का एक साथ समायोजन असंभव है, यह बात सरकार के पैरवीकारों और रणनीतिकारों को समझनी चाहिए थी। राजनीतिक प्रतिबद्धता कभी-कभी गले की फांस बन जाती है। इसे जाहिर करने से पहले ठोस तार्किक आधार पर नजर अवश्य डालनी चाहिए। सारे परिदृश्य से एक संकेत साफ उभर कर आ रहा है कि हरियाणा में सरकारी शिक्षा का क्षेत्र संगठित सुनियोजित नहीं है। जेबीटी अध्यापकों की कुछ माह पूर्व भारी संख्या में भर्ती हुई। भीड़ इतनी है कि अब स्कूलों में पद ढूंढने के लिए मारा-मारी चल रही है। पात्र व अनुबंधित अध्यापकों में असंतोष व बेचैनी स्पष्ट देखी जा सकती है। गेस्ट टीचरों को हालांकि एक वर्ष का और समय मिला है पर नियमित भर्ती में उन्हें कोई रियायत नहीं मिलेगी, नया आवेदन करना होगा व पात्रता परीक्षा समेत अन्य सभी आवश्यक शर्ते पूरी करनी होंगी। अब सरकार के कौशल की परीक्षा का समय आ चुका है। गेस्ट टीचरों के साथ लाखों परिजन भी जुड़े हैं। राजनीतिक जागरूकता के चलते किसी भी विषय को मुद्दा बनाने में देर नहीं लगती। सरकार का पहला प्रयास यह होना चाहिए कि विधि व नीतिसम्मत तरीके से अतिथि अध्यापकों के बारे में गहन चिंतन-मनन करके अनिश्चितता की स्थिति खत्म करे