अन्ना हजारे के आंदोलन ने देश को एक अभूतपूर्व दोराहे में ला खड़ा किया है, जहां से एक रास्ता देश को दुनिया के शिखर पर ले जा सकता है तो दूसरा एक अंतहीन गर्त में। अब सरकार ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियों के साथ -साथ अन्य बुद्धिजीवियों पर निर्भर करेगा कि देश को किस दिशा में ले जाना है। पूरे प्रकरण को समझने के लिए यह जानना होगा कि इस पूरे आंदोलन की प्रकृति क्या है, स्वरूप क्या है, इसकी दिशा क्या है, इसके व्यापक उद्देश्य क्या हैं और क्या सबक लिए जा सकते हैं? आजादी के बाद यह एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन है जिसका नेतृत्व राजनेताओं के हाथ में न होकर आम नागरिक के पास है। इसके कुछ आंदोलन जिन्होंने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया था उनमें जेपी का 74 का आंदोलन, 89 का वीपी सिंह का आंदोलन, मंदिर आंदोलन और फिर मंडल आंदोलन को शामिल किया जा सकता है। मंदिर आंदोलन से जहां मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध आदि धर्मावलंबी और हिंदुओं का सेक्युलर तबका अलग थे तो मंडल आंदोलन से सवर्ण बाहर थे। इनमे जेपी का आंदोलन अपेक्षाकृत एक अखिल भारतीय आंदोलन था, लेकिन इसका नेतृत्व राजनेताओं के पास था और जिनका उद्देश्य संपूर्ण क्रांति के साथ-साथ सत्ता परिवर्तन भी था, लेकिन अन्ना का आंदोलन नेतृत्व, भागीदारी से लेकर उद्देश्य तक आम जनता का आंदोलन है और इसका तात्कालिक लक्ष्य भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक सशक्त लोकपाल कानून को लाना है, हालंकि इसके देश हितकारी अन्य दूरगामी परिणाम भी होंगे। अनेक राजनीतिक चिंतक इस आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र या दलगत राजनीति के लिए एक खतरा बताते हैं, लेकिन इस सवाल का वे जवाब नहीं देते कि इन परिस्थियों के लिए जिम्मेदार कौन है। कठघरे में सिर्फ कांग्रेस ही नहीं खड़ी है, बल्कि भाजपा, कम्युनिस्ट पार्टियां और अन्य अधिकांश दल शामिल हैं। वरना क्या कारण है कि आज किसी राजनेता या दल में वह नैतिक साहस नहीं है कि वह किसी मुद्दे पर खड़े हों और पूरा देश उनके पीछे आ जाए। इसके लिए क्या अन्ना या जनता जिम्मेदार है? इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत है कि इतना बड़ा, देशव्यापी और स्वत:स्फूर्त होने के बावजूद यह पूरी तरह से अहिंसक रहा है और यह इस आंदोलन की शक्ति भी है, क्योंकि सरकार को जरा भी मौका मिलता तो इसे कुचलने में वह देर नहीं करती। अहिंसक होने से ही इसे व्यापक जनसमर्थन मिलता चला गया और सरकार हिल गई। यह अनायास नहीं है कि पूरी दुनिया के मीडिया ने इस आंदोलन को प्रमुखता से कवरेज देते हुए इसकी सफलता का गुणगान किया है। और तो और पाकिस्तान जैसे सैन्य तानाशाही वाले देश या खूनी संघर्ष से उथल-पुथल हो रहे अरब देशों में अन्ना हजारे से प्रेरणा लेने की बात होने लगी है। इस आंदोलन के स्वरूप पर आरोप लगाते हुए सरकारी प्रतिनिधि ने इसे मीडिया मैनेज्ड या आरआरएस द्वारा प्रायोजित या अमेरिकी सरकार द्वारा समर्थित बता रहे है। उसी तरह कुछ विश्लेषक इसे सवर्णवादी, अभिजन वादी, कारपोरेटवादी बता रहे हैं, लेकिन सच इनसे कोसों दूर है। यह सही है कि आंदोलन को मीडिया ने खासा कवरेज दिया, लेकिन सिर्फ मीडिया के सहारे कोई आंदोलन नहीं चल सकता जब तक उसके पीछे कोई ठोस सामाजिक-आर्थिक कारण न हो। आंदोलन अभी नगरों तक सीमित है और शिक्षित युवा वर्ग ही इसमें बड़ी भूमिका निभा रहा है, लेकिन आग धीरे धीरे कस्बों तक फैल रही है और आने वाले दिनों में इसकी आंच गांवों तक पहुंच सकती है। इसी तरह शुरू से सरकार अन्ना टीम को आरएसएस-भाजपा द्वारा प्रायोजित बता कर तोड़ने की कोशिश कर रही है, पर अन्ना टीम के कोर सदस्य संतोष हेगड़े ने कर्नाटक की भाजपा सरकार के खिलाफ अपनी रिपोर्ट पेश कर इस दावे को पंचर ही कर दिया है। अन्ना के समर्थन में अब आरएसएस जरूर उतर पड़ी है, लेकिन आज अन्ना के साथ घोर आरएसएस विरोधी लोग भी कूद पड़े हैं। यह अनायास नहीं है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जो देश की मुस्लिम राजनीति को एक बौद्धिक दिशा देता है, के शिक्षकों और छात्रों ने अन्ना के समर्थन में उद्घोष किया है। उसी तरह यह भी गलत है कि यह आंदोलन सवर्णवादी, अभिजनवादी है। यह ठीक है कि इसका नेतृत्व अभी सवर्ण और अभिजन कर रहे हैं, लेकिन आंदोलन से सबसे अधिक फायदा समाज के निम्न वर्ग के लोगों को ही होगा, जिनके बुनियादी हक भ्रष्टाचार का दानव हड़प और हजम किए जा रहा है। इस रूप में यह आंदोलन दलितों, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के लिए सबसे अधिक हितकारी है। अनेक दलित और पिछड़ी जातियों के बुद्धिजीवियों ने बताया है कि वे पूरी तरह से अन्ना के साथ हैं। इस आंदोलन की सबसे बड़ी शक्ति युवा वर्ग है, जो समाज के सभी धर्म-जाति-वर्ग-क्षेत्र के हैं और जिनकी संख्या 15 करोड़ से ज्यादा है। यह युवा वर्ग पहले के किसी भी भारतीय आंदोलनों की अपेक्षा ज्यादा शिक्षित, ज्यादा सूचनाओं से लैस और ज्यादा जागरूक और समझदार है। सबसे बड़ी बात है कि दिग्भ्रमित कहे जाने वाले इस युवा पीढ़ी की ऊर्जा अभूतपूर्व रूप से जाग गई है और इसकी आकांक्षाओं को ज्यादा दबाया नहीं जा सकता। सरकार, कांग्रेस, भाजपा या अन्य सभी राजनीतिक दलों को समझ लेना चाहिए कि उनका कोई भी गलत कदम राजनेताओं और राजनीति पर पहले से ही गहरे अविश्वास को और मजबूत ही करेगा और इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार होंगे। सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा आंदोलन को अमेरिका पोषित कहना या इसे भ्रष्ट बताते हुए यह कहना कि कहां से आंदोलन के लिए पैसा आ रहा है, सच्चाई को ठुकराने वाली बात है। अन्ना में लोगों का इतना विश्वास है कि उनके आंदोलन को धन की कमी नहीं है और न होगी। एक सरल गणित को समझ लें कि देश के एक करोड़ लोग इतने सक्षम तो हैं ही कि हर कोई अन्ना को सिर्फ सौ-सौ रुपये भी दे तो यह राशि सौ करोड़ हो जाती है। हालांकि अन्ना के आंदोलन का कुल खर्च अब तक एक करोड़ का आंकड़ा नहीं पार कर पाया है। आज अन्ना का समर्थन करने के बावजूद जनलोकपाल बिल से अन्य राजनीतिक पार्टियां भी पूरी तरह से सहमत नहीं हैं, लेकिन क्या इसमें उनका स्वार्थ आड़े आ रहा है या सचमुच इसके दूरगामी दुष्परिणाम हो सकते हैं, इसका विश्वास दिलाने की जिम्मेदारी अब सभी राजनीतिक पार्टियों की ही है और इसके लिए हर प्रावधान पर एक खुली बहस होनी चाहिए. वरना याद रखिए-न तो आपको इतिहास माफ करेगा, न ही भविष्य स्वीकारेगा और वर्तमान में तो आप अपनी विश्वसनीयता खो ही चुके हैं।