किस तरह केवल कानूनों का निर्माण कर अभीष्ट की पूर्ति नहीं की जा सकती, इसका एक और उदाहरण है कि शिक्षा अधिकार कानून पर अमल की स्थिति। छह से चौदह वर्ष आयु तक के बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून बने हुए एक वर्ष हो चुके हैं, लेकिन अभी तक अनेक राज्यों ने उस पर अमल के लिए बुनियादी कदम भी नहीं उठाए हैं। ऐसे राज्यों की संख्या 16 है और उनमें पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के अलावा झारखंड जैसे छोटे राज्य भी शामिल हैं। सबसे आश्चर्यजनक यह है कि शिथिलता का परिचय देने वाले इन राज्यों में दिल्ली भी शामिल है। ये सभी राज्य अपनी सुस्ती को सही ठहराने के लिए तरह-तरह के तर्क दे सकते हैं, लेकिन यह समझना कठिन है कि आखिर उन्हें अधिसूचना जारी करने में क्या कष्ट हो रहा है? जिसमें इच्छाशक्ति न हो उसके पास बहानों की कमी नहीं होती। आखिर जो काम हरियाणा कर सकता है वह पंजाब क्यों नहीं? इसी तरह जो काम बिहार ने कर दिखाया वह झारखंड क्यों नहीं कर पा रहा है? यह ठीक है कि केंद्र सरकार ने शिक्षा अधिकार कानून को लागू करने के संदर्भ में अधिसूचना न जारी करने वाले राज्यों से कहा है कि वे जब तक ऐसा नहीं करते तब तक उनके यहां सर्वशिक्षा अभियान की परियोजनाओं को मंजूरी नहीं दी जाएगी, लेकिन यह तय नहीं कि इस सख्ती के बाद राज्य सरकारें अपने हिस्से का काम करने के लिए आगे आएंगी। वे इस चेतावनी की भी अनदेखी कर सकती हैं। वैसे भी सर्वशिक्षा अभियान के शिथिल पड़ने से राज्यों के नीति-नियंताओं की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। यह घोर निराशाजनक है कि जब केंद्र सरकार यह सोच रही है कि शिक्षा के अधिकार से संबंधित कानून के तहत हाई स्कूल तक मुफ्त पढ़ाई की व्यवस्था की जाए तब अनेक राज्य सरकारें प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को दुरुस्त करने में तत्परता का परिचय देने से इंकार कर रही हैं। कई राज्यों ने शिक्षा अधिकार कानून पर अमल की निगरानी के लिए बाल अधिकार संरक्षण आयोगों का भी गठन नहीं किया है। इसी प्रकार यह भी किसी से छिपा नहीं कि कई राज्यों ने शिक्षकों की भर्ती के तौर-तरीकों में अपने हिसाब से बदलाव करने शुरू कर दिए हैं। यह निराशाजनक है कि राज्य शिक्षा अधिकार कानून पर अमल के लिए केंद्र सरकार को तो उसके दायित्वों की याद दिला रहे हैं, लेकिन जो कुछ उन्हें अपने स्तर पर करना है उसके लिए कोई तत्परता नहीं दिखाई जा रही है। इस सबसे तो ऐसा लगता है कि शिक्षा अधिकार कानून पर अमल के नाम पर खानापूरी ही की जा रही है। इन स्थितियों में इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती कि राज्य सरकारें बच्चों को गुणवत्ता प्रधान शिक्षा प्रदान करने के प्रति गंभीर हैं। चूंकि शिक्षा अधिकार कानून के प्रति अधिकांश राज्य सरकारों का रवैया संतोषजनक नहीं है इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव बनाए और यह सुनिश्चित करे कि इस कानून के अमल में किसी भी स्तर पर कोई हीलाहवाली न होने पाए। बेहतर हो कि केंद्र सरकार इस पर विचार करे कि उसके स्तर पर ऐसी कोई पहल भी की जाए जिससे जो राज्य शिक्षा अधिकार कानून को अमल में लाने के मामले में अपेक्षाओं पर खरे उतर रहे हैं उन्हें पुरस्कृत किया जा सके।