हिसार, जागरण टीम : प्रदेश की राजनीति के एक युग का अंत हो गया है। राजनीति के पीएचडी कहे जाने वाले दिग्गज राजनेता, पूर्व मुख्यमंत्री एवं हरियाणा जनहित कांग्रेस (बीएल) के संरक्षक चौधरी भजनलाल (81) का दिल का दौरा पड़ने से शुक्रवार शाम करीब सवा पांच बजे निधन हो गया। सीने में दर्द की शिकायत होने पर दोपहर करीब सवा 12 बजे अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां करीब चार घंटे के उपचार के बाद चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। हरियाणा के चर्चित तीन लालों में वह आखिरी थे। राजनीति के पीएचडी माने जाने वाले व तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके चौ. भजनलाल के निधन की खबर पूरे प्रदेश में आग की तरह फैल गई। सूचना मिलते ही प्रदेशभर में शोक व्याप्त हो गया। उनके पार्थिव शरीर को लोगों के अंतिम दर्शनों के लिए उनके आवास पर रखा गया है। उनका अंतिम संस्कार शनिवार को उनके पैतृक गांव आदमपुर में सायं पांच बजे किया जाएगा। पूर्व मुख्यमंत्री को उनके हिसार स्थित आवास पर दोपहर करीब साढ़े 12 बजे दिल का दौरा पड़ा। उस समय वह नगरपालिका कर्मचारी संघ के प्रतिनिधियों से बातचीत करने व उनका ज्ञापन लेने के बाद अपने कमरे की ओर जा रहे थे कि अचानक अचेत होकर गिर गए। वहां मौजूद उनकी पत्नी जसमां देवी, भतीजा देवीलाल व अन्य परिजन तुरंत उन्हें आवास के समीप स्थित सपरा अस्पताल ले गए। डाक्टरों की मशक्कत के बावजूद हालत में सुधार न होने पर उन्हें दिल्ली ले जाने की तैयारी शुरू कर दी गई। करीब 1.30 बजे उन्हें जिंदल चौक स्थित रविंद्रा अस्पताल ले जाया गया। वहां दिल्ली के एस्कार्ट हास्पिटल से आए हृदय रोग विशेषज्ञ से उनकी एंजियोप्लास्टी करने की तैयारी थी। उनकी तबीयत में पहले से कुछ सुधार का दावा किए जाने पर उनके समर्थकों व परिजनों को आस बंधी, लेकिन करीब चार घंटे तक बेहोश रहे भजनलाल का 5 बजकर 20 मिनट पर निधन हो गया।
लालों की राजनीति का चेहरा थे
तीन लालों की राजनीति के नाम से मशहूर प्रदेश की राजनीति के आखिरी लाल भी आज हमसे जुदा हो गए। हरियाणा के तीन लालों देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल ने अपने-अपने अंदाज में प्रदेश की राजनीति को अलग रंग और तेवर दिए। इनमें भजनलाल को राजनीति की पीएचडी में माहिर माना जाता था। देवीलाल और बंसीलाल हमसे पहले जुदा हो गए थे और शुक्रवार को भजनलाल चल बसे। मुख्यमंत्री के तौर पर भजनलाल की राज्य में तीन पारियां थीं भजनलाल की संक्षिप्त पारी : पहली बार 1979 में भजनलाल ने देवीलाल के विधायकों को अपने पक्ष में करके मुख्यमंत्री का पद हासिल किया। तब देवीलाल और भजनलाल दोनों ही जनता पार्टी में थे। आपातकाल के बाद 1977 में देवीलाल सूबे के मुख्यमंत्री बने। पर दो साल बाद भजनलाल के जनता पार्टी की सरकार के तौर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। इसके बाद 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वर्चस्व पूरे देश में हो गया। भजनलाल भी पूरे लाव लश्कर के साथ कांग्रेस में चले गए। भजनलाल के शब्दों में यह उनकी घर वापसी थी। भजनलाल के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। प्रो. शेर सिंह जैसे नेता उनके साथ आकर केंद्र में मंत्री बन गए थे। बंसीलाल अपनी अपमानजनक हार के बाद चुपचाप घर बैठे थे। भजनलाल के सामने सबसे बड़ी समस्या सामाजिक समीकरण थे। भजनलाल को जल्द आभास हो गया था कि जाटों का बडे स्तर पर उन्हें समर्थन हासिल नहीं होगा। जाटों को इस बात का भी गिला था कि भजनलाल ने देवीलाल को हटाकर गद्दी हासिल की थी। इसलिए उन्होंने राज्य में ब्रांाण और पंजाबियों को तरजीह देकर नए राजनीतिक समीकरण स्थापित कर दिए। भजनलाल की समूची राजनीति 1982 के विधानसभा के चुनाव के पेशनजर थी। भजनलाल की हार और जीत की संभावना बराबर-बराबर थी। पार्टी के बाहर भजनलाल के सामने देवीलाल की चुनौती थी तो पार्टी के भीतर बंसीलाल, बीरेंद्र सिंह और शमशेर सिंह सुरजेवाला सरीखे जाट नेताओं की चुनौती थी। पर चुनाव की रणभेरी बजने पर भजनलाल ने कांग्रेस में अपने ज्यादा से ज्यादा समर्थकों को टिकट दिलाकर बाजी मार ली। वैसे हाईकमान की तरफ से भी हरी झंडी थी कि अगर कांग्रेस को बहुमत मिलता है तो भजनलाल ही मुख्यमंत्री होंगे, पर चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस के पास 34 विधायक थे और लोकदल के पास 31 जीत सरकार बनाने के लिए 45 विधायकों की दरकार थी। बाजी आजाद विधायकों के हाथ थी। लोकदल के चौधरी देवीलाल और बीजेपी के डा.मंगल सेन ने राज्यपाल जीडी तपासे के पास 46 विधायकों का दावा पेश किया, पर राज्यपाल ने कांग्रेस को सबसे बड़ा राजनीतिक दल मानकर भजनलाल को मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलवा दी। बाद में भजनलाल विधानसभा में बहुमत साबित करने में सफल हुए। बेशक तख्ता पलट कर भजनलाल की पहली पारी संक्षिप्त रही पर वह दूसरी पारी बुनियाद बनी। भजनलाल की दूसरी पारी : चाहे जैसे भी हो भजनलाल दूसरी बार मुख्यमंत्री बन ही गए। पर दूसरी बार देलीलाल को पटखनी देने से जाट वर्ग भजनलाल के और अधिक खिलाफ हो गया।
विपरीत लहरों के तैराक थे भजनलाल
भले ही उन्हें राजनीति का पीएचडी कहा जाता था, परंतु वास्तविकता यह है कि भजनलाल विपरीत लहरों के तैराक थे। जहां कहीं पार्टी संगठन संकट में नजर आया, माहिर तैराक की तरह वह संगठन को भंवर से निकाल ले गए। बेहद सामान्य परिवार में जन्मे, साधारण व्यापारी के रूप में व्यावसायिक जीवन शुरू किया, राजनीति की ओर रुख हुआ और आदमपुर के ब्लाक समिति सदस्य, पंच फिर सरपंच बने और अपनी कुशल संगठन व नेतृत्व क्षमता के कारण प्रदेश की सर्वोच्च पंचायत यानि विधानसभा में मुख्यमंत्री के रूप में पदस्थापित हुए। 11 वर्ष, 9 महीने और 25 दिन तक मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश का नेतृत्व किया। केंद्र में कृषि, पर्यावरण व वन मंत्री भी रहे। पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को आधारभूत स्तर तक आम आदमी तक ले गए। 36 बिरादरी को साथ जोड़ने का नारा सभी दल देते हैं परंतु इन्हें जोड़ा कैसे जाए, यह साबित कर दिखाया भजनलाल ने। 6 अक्टूबर 1930 को जन्मे भजनलाल के व्यक्तित्व में बहुत सी ऐसी विशेषताएं थीं, जो उन्हें बचपन से ही औरों से अलग करती थीं। जन्म जिला बहावलपुर के कुरांवाली गांव में हुआ जो आज पाकिस्तान के पंजाब सूबे में है। बात 1962 की है जब वह कांगे्रस टिकट मांगने तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित भगवत दयाल शर्मा के पास गए थे पर टिकट नहीं दी गई। धुन के पक्के भजनलाल ने हार नहीं मानी और 1968 में टिकट भी पाई, जीते भी, साथ ही उनके 16 समर्थक भी चुनाव जीतकर आए। उस समय भजनलाल की नेतृत्व क्षमता से लोग वाकिफ हुए और भविष्य के मुख्यमंत्री पद के दावेदार का आधार तैयार हो गया था। सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते इस बिश्नोई नेता ने कुछ वर्ष बाद प्रदेश की सत्ता के सर्वोच्च पद पर दस्तक दी। 1977 में प्रचंड कांगे्रस विरोधी लहर में हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। भजनलाल स्वयं इस पार्टी से विधायक चुने गए थे। राजनीति में कुशल सारथी वही माना जाता है जो मौके की नजाकत समझे और तत्काल निर्णय करे। जनता पार्टी के अधिकतर विधायकों को कांगे्रस में शामिल कराकर 1979 में कांगे्रस सरकार के मुख्यमंत्री बने। फिर आया 1982 का विधानसभा चुनाव जिसमें कांगे्रस को सिर्फ 36 सीटें मिलीं। तब लोकदल को 31, भाजपा को 6, जनता पार्टी को एक व 16 निर्दलीय विधायक बने थे। इतनी विषम परिस्थितियों में भी भजनलाल अचूक निशानेबाज साबित हुए और कांगे्रस की सरकार बनाई। अब बात आती है 1982 के दिल्ली एशियाई खेलों की। पंजाब के आतंकवादियों की धमकियों से केंद्र सरकार भी चिंतित थी। तब भजनलाल ने ऐलान किया था कि हरियाणा की सीमा से एक भी आतंकवादी दिल्ली पहुंच जाए तो मुख्यमंत्री पद छोड़ दूंगा। चाक-चौबंद व्यवस्था के दम पर उन्होंने अपना वादा निभाया और एशियाड 82 शान से शुरू और संपन्न हुआ। भजनलाल को तब जरनैल सिंह भिंडरावाले की तरफ से धमकी मिली थी। तभी उन्हें जेड प्लस सुरक्षा मिली जो जीवन पर्यत उनके साथ रही। विपरीत परिस्थितियों से जूझने और चक्रव्यूह से विजेता की तरह निकलने का उदाहरण 1989 का फरीदाबाद लोकसभा चुनाव भी रहा है। मेव बहुल फरीदाबाद में उन्होंने दिग्गज नेता खुर्शीद अहमद को 1.37 लाख वोटों से शिकस्त दी थी। 1998 में ब्रांाण बहुल करनाल से लोकसभा सीट जीती। 1987 में हालांकि चौ. देवीलाल की पार्टी ने भाजपा से गठबंधन करके 90 में से 85 सीटें जीतीं, लेकिन घटनाक्रम इतनी तेजी से बदलता गया कि 1991 के चुनाव आते-आते कांगे्रस की फिर जीत हुई और भजनलाल पुन: मुख्यमंत्री बने। वह 1996 तक सीएम रहे।
ये थी भजनलाल की शख्सियत
एक समय हरियाणा की सियासत तीन लालों देवीलाल, बंसीलाल, भजनलाल के इर्द-गिर्द घूमती थी। वैसे तो सभी लालों की अपनी खासियत थी। देवीलाल को जननायक का दर्जा मिला तो बंसीलाल को लौह पुरुष का। लेकिन इससे इतर भजनलाल का व्यक्तित्व का एक पहलू ऐसा था जो दूसरे लालों से उन्हें जुदा करता था। राजनीति की चौसर में भी अपने पर हावी होने वाले विरोधियों को अकस्मात मात दे देना उनकी खूबी थी। हरियाणा की सियासत में उन्हें सबसे पहले चौधरी देवीलाल लेकर आए थे मगर राजनीतिक मतभेदों के चलते वह देवीलाल से अलग हो गए और 1972 के विधानसभा चुनाव में भजनलाल ने आदमपुर में अपने राजनीतिक गुरु को भी पटखनी देकर अपनी क्षमता का परिचय दिया। इसके बाद वह प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हुए। राजनीतिक पंडितों ने भजनलाल को राजनीति में पीएचडी की उपाधि से अलंकृत किया। केंद्र में नरसिंह राव की सरकार बचाने में भी उनकी अहम भूमिका मानी जाती थी। इन्ही राजनीतिक खूबियों की वजह से ही उन्हें आज के युग का चाणक्य भी कहा गया। वह कभी अपने गढ़ आदमपुर से चुनाव नहीं हारे। इतना ही नहीं आदमपुर विधानसभा चुनाव में जो भी प्रत्याशी उनके खिलाफ लड़ा वही बाद में उनका मुरीद हो गया। फिर चाहे उनके समक्ष चुनाव लड़ने वाले गुरमेश बिश्नोई हों, धर्मपाल सरसाना हों अथवा मास्टर हरिसिंह। सभी उनके आगे नतमस्तक हुए। जीवन के अंतिम क्षणों में भी वह अपने घर आने जाने वाले लोगों का हाल-चाल तो पूछते ही थे साथ ही साथ उनके घर-परिवार की सलामती पूछना नहीं भूलते थे। एक वाक्य जो समर्थकों से मिलने के समय हर समय उनकी जुबान पर रहता था। यह ऐसा वाक्य था जो उनसे मिलने आने वाले हर पार्टी कार्यकर्ता चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, उनकी धमनियों में नए रक्त का संचार कर जाता था। वह वाक्य था, और कोई मेरे लायक सेवा।