Thursday, 19 January 2012

अंतरजातीय विवाह करने वाले युगल की संतानों को भी आरक्षण का हक

नई दिल्ली, एजेंसी : अंतरजातीय विवाह से जन्मीं संतानों को सिर्फ इस आधार पर आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता कि दंपति में से एक उच्च जाति से ताल्लुक रखता है। उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को अपने एक फैसले में यह व्यवस्था दी। जस्टिस आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने रमेशभाई दभाई नाइका की गुजरात सरकार के फैसले को खिलाफ दायर याचिका पर फैसला करते हुए यह निर्णय दिया। गुजरात सरकार ने याचिकाकर्ता को अनुसूचित जनजाति के तहत आरक्षण देने से इंकार कर दिया था क्योंकि उसके पिता क्षत्रिय थे। पीठ ने कहा कि अंतरजातीय विवाह या आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच विवाह से जन्में बच्चे का जाति निर्धारण प्रत्येक मामले में अंतर्निहित तथ्यों के आधार पर होना चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि अंतरजातीय विवाह या आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच विवाह में एक पूर्व धारणा हो सकती है कि बच्चे को पिता की जाति मिले। यह पूर्व धारणा उस मामले में और मजबूत हो सकती है जब आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच विवाह में पति उच्च जाति का हो लेकिन यह पूर्व धारणा किसी भी तरीके से निर्णायक नहीं हो सकता और ऐसे विवाह से जन्मा बच्चा यह सबूत दिखा सकता है उसकी परवरिश अनुसूचित जाति या जनजाति से संबंध रखने वाली माता ने की है। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि अंतरजातीय विवाह में पारंपरिक हिंदू विवाह कानून किस हद तक लागू होता है यह गौर करने वाला विषय है। न्यायालय ने पूर्व में फैसला दिया था कि एक आदिवासी महिला विवाह के बाद उच्च जाति के अपने पति की जाति को अपना सकती है। अगर वह ऐसा करती है तो वह आरक्षण का लाभ का लाभ खो देगी। बेंच ने कहा कि मौजूदा मामले में कहा कि याचिकाकर्ता से आदिवासी होने का प्रमाणपत्र बगैर किसी सबूत या मजबूत आधार के छीन लिया गया, सिर्फ इस आधार पर कि उसके पिता एक क्षत्रिय हैं। हाईकोर्ट ने इस तथ्य को नहीं देखा कि पीडि़त की मां अनुसूचित जनजाति से ताल्लुक रखती है। याचिकाकर्ता और उसके सहोदर ने भी अनुसूचित जनजाति की महिला से शादी की है। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के इस तथ्य पर भी गौर नहीं किया कि उसकी परवरिश अनुसूचित जनजाति की उसकी मां ने की है और वह उसी समुदाय के सदस्य के तौर पर पला बढ़ा है।
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