पिछले माह भुवनेश्वर में भारतीय विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वीकार किया था कि पिछले एक दशक के दौरान विज्ञान के क्षेत्र में विश्व में भारत का दर्जा गिरा है और चीन जैसे देश हमसे आगे निकल गए हैं। उन्होंने अफसोस जताया कि विज्ञान और इंजीनियरिंग सर्वश्रेष्ठ छात्रों को आकर्षित तो कर रहे हैं किंतु इस क्षेत्र में कमजोर संभावनाओं के कारण बहुत से छात्र बाद में अन्य विधाओं में चले जाते हैं। किंतु यह भारत में विज्ञान शिक्षा की ही समस्या नहीं है, यह तो समग्र उच्च शिक्षा व्यवस्था की समस्या है। भारत को उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में देखा जा रहा है, ऐसी शक्ति जो 21वीं सदी में सत्ता संतुलन को आकार देगी। हालांकि भारत को अपने आर्थिक विकास को गति प्रदान करने में अनेक बाधाओं को दूर करना है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है भारत की उच्च शिक्षा का संकट। भारत में उच्च शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए सरकार ने दर्जन भर तथाकथित नए विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखा है। इसके अलावा 16 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने की योजना भी बनाई है। इनकी रूपरेखा यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने तैयार की है। उम्मीद है, संसद के अगले सत्र में सरकार इस संबंध में विधेयक पेश कर देगी। इन विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों में समान प्रवेश परीक्षा होगी, जिनमें अधिकतम 12,000 छात्र प्रवेश पा सकेंगे। इनमें हर तीन साल में पाठ्यक्रम में बदलाव किया जाएगा, सेमेस्टर सिस्टम लागू होगा और निजी क्षेत्र की भागीदारी होगी। आगामी 11वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को केंद्र में रखा गया है। इसे भारत की शिक्षा योजना कहा गया है। शिक्षा के लिए दसवीं पंचवर्षीय योजना में 7.7 फीसदी प्रावधान की तुलना में 11वीं योजना में 19 फीसदी प्रावधान किया गया है। उच्च स्तरीय सलाहकार इकाई नेशनल नॉलिज कमीशन ने भी रेखांकित किया है कि भारत की उच्च शिक्षा में आमूलचूल बदलाव की आवश्यकता है। 21वीं सदी में शक्ति के वैश्विक वितरण में ज्ञान अहम भूमिका निभाएगा। उच्च प्रौद्योगिकी उद्योगों के बल पर भारत पहले ही आर्थिक सफलता के पथ पर आगे बढ़ रहा है। किंतु वर्तमान में भारत की उच्च शिक्षा की दारुण अवस्था को देखते हुए विकास की वर्तमान गति बरकरार रहने में संदेह है। भारत का निकटतम प्रतिस्पर्धी चीन भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए उच्च शिक्षा में निवेश बढ़ा रहा है, जबकि भारत आंखें मूंदे बैठा है मानो भारतीय विश्वविद्यालयों में विश्वस्तरीय शोध का अभाव कोई ऐसी समस्या है जो खुद-ब-खुद ही हल हो जाएगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि आइआइटी और आइआइएम के माध्यम से भारत से सुप्रशिक्षित इंजीनियर और प्रबंधक निकल रहे हैं किंतु इनकी संख्या पर्याप्त नहीं है। यह भी गंभीर चिंता का विषय है कि निजी शिक्षण संस्थान इंजीनियरों और प्रबंधकों की बढ़ती मांग की पूर्ति तो कर रहे हैं किंतु इनके उत्पाद उस गुणवत्ता के नहीं हैं जिनके बल पर भारत वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सके। भारत का उच्च शिक्षा तंत्र विश्व में तीसरे स्थान पर आता है। इससे आगे अमेरिका और चीन हैं। भारत में प्रतिवर्ष करीब 25 लाख स्नातक निकलते हैं, जो भारत के संबंधित युवा वर्ग का महज 10 फीसदी है। यही नहीं, इनकी योग्यता भी मानकों से बहुत नीचे है। अगर हम आइआइटी, आइआइएम और कुछ अन्य गिने-चुने संस्थानों को छोड़ दें, तो पाते हैं कि उच्च शिक्षा का स्तर उभरते हुए भारत की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में समर्थ नहीं है। भारतीय विश्वविद्यालय जिन्हें विश्वस्तरीय शोध और बौद्धिक गतिविधियों का केंद्र होना चाहिए था, छल-कपट के अड्डे बने हुए हैं। वर्षो से उच्च शिक्षा में निम्न निवेश करने और प्रदर्शन पर ध्यान न देकर तमाम विश्वविद्यालयों के साथ समान व्यवहार करने के कारण ऐसा माहौल बन गया है कि शिक्षाविदों को बेहतर शोधपरक शिक्षा के लिए जरूरी संसाधन और प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहे हैं। आधुनिक ज्ञान आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी पूर्ण क्षमता का दोहन करने के लिए भारत को विश्व के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की आवश्यकता है। उच्च शिक्षा का संकट संभवत: किसी भी लोकतांत्रिक देश का सबसे गहन संकट होता है। यह संकट भारत के भविष्य को सीधे-सीधे प्रभावित करेगा। भारत में उच्च शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। यह शिक्षा सुधार के समग्र कार्यक्रम का नतीजा न होकर सार्वजनिक क्षेत्र के ध्वस्त होने का दुष्परिणाम है। यह ढर्रा परेशान करने वाला है। यह आशा की जा रही है कि भारत इस पहलू पर ध्यान देगा और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अधिक धनराशी डालेगा। केवल विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाने भर से शिक्षा के क्षेत्र में समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता। विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की स्थापना करने की रूपरेखा बनाना पहला जरूरी कदम जरूर है, किंतु इससे समस्याओं का खुद-ब-खुद समाधान नहीं हो जाएगा। संख्या पर जोर देना भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था की गिरती गुणवत्ता रोकने का सही उपाय नहीं है। नीति निर्माता समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच रहे हैं। भारत में उच्च शिक्षा के विकास में ऐसे संस्थान अहम भूमिका निभा सकते हैं जो शोधपरक शिक्षा पर जोर देते हों। उच्च शिक्षा को मात्र आर्थिक औजार के तौर पर विकसित नहीं किया जा सकता, जिसका प्रमुख ध्येय नियोक्ता की आवश्यकता पूरी करने के लिए छात्रों को व्यावहारिक कुशलता से लैस करना हो। न ही हमारी उच्च शिक्षा का उद्देश्य ऐसे इंजीनियर और वैज्ञानिक पैदा करना होना चाहिए जो चीन से टक्कर ले सकें। जीवन के वृहत्तर मामलों पर गहन शोध के बजाय महज नौकरी के कुछ नुक्ते सिखाना भर दीर्घकाल में घातक सिद्ध हो सकता है। भारत को विकास के लिए ज्ञानार्जन के साथ-साथ उच्च शिक्षा के महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर उच्च शिक्षा का मुख्य ध्येय छात्रों की तार्किक सोच को बढ़ावा देना, उनके बौद्धिक फलक का विस्तार करना और सृजनात्मकता को प्रोत्साहित करना है तो बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि भारत की उच्च शिक्षा पूरी तरह विफल रही है। यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार राष्ट्र के उच्च शिक्षण तंत्र की सड़न दूर करने के लिए इसमें आमूलचूल परिवर्तन करना चाहती है या नहीं। (लेखक लंदन के किंग्स कॉलेज में प्राध्यापक हैं)