Monday, 26 December 2011

लेटलतीफी

प्रदेश के सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों के बैठने के लिए पर्याप्त बेंच न होने के पीछे जिस कारण का खुलासा हुआ है, वह सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाता है। लेटलतीफी का इससे खराब उदाहरण शायद ही कोई हो, जिसकी वजह से हजारों मासूम हाड़ कंपा देने वाली ठंड में जमीन पर बैठने को विवश हैं। आखिर इस व्यवस्था के भरोसे सरकार कैसे उम्मीद कर सकती है कि कोई उसके स्कूलों में अपने बच्चे-बच्चियों को भेजेगा। यह उस कारण की तरफ भी इशारा करता है कि क्यों लोग सरकारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं करते और करोड़ों रुपये खर्चने के बाद भी सरकारी योजनाएं लोगों में विश्वास नहीं जगा पातीं, जबकि अपेक्षाकृत बहुत कम आर्थिक और मानवीय संसाधन के बावजूद निजी क्षेत्र काफी आगे निकल रहा है। अफसोस की बात यह है कि सरकारी योजनाओं का असफलता किसी भी देशभक्त नागरिक के लिए बहुत वेदना देती है, लेकिन व्यवस्थागत खामियां इतनी गहरी खाई पैदा कर चुकी हैं कि मजबूरी होते हुए भी निजी क्षेत्र का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा है। अगर इसी मामले में देखा जाए तो राष्ट्रमंडल खेलों से बहुत पहले सरकार ने स्कूलों में बेंच की आपूर्ति का ठेका दे दिया था। राष्ट्रमंडल खेलों जैसा बड़ा आर्डर कोई कंपनी क्यों छोड़ती, लिहाजा बेंच आपूर्ति की जिम्मेदारी से वे पीछे हट गईं। अब राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती थी कि वह बेंच आपूर्ति का कार्य किसी दूसरी कंपनी को दे। लेकिन सरकारी रवैया जो ठहरा। प्रदेश की शिक्षामंत्री की मानें तो उच्चाधिकार प्राप्त क्रय समिति में मसला उठने के बाद बेंचों के लिए कई सौ करोड़ रुपये का आर्डर दे दिया गया है। अब भी निश्चित रूप से यह नहीं बताया जा सकता कि स्कूलों को ये बेंच कब तक मिलेंगे? अगर इसमें वर्षो लग जाएं तो कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में राज्य को शिखर पर पहुंचाने की सरकार की मंशा पर तो सवाल नहीं उठाया जा सकता, मगर ताजा प्रसंग ने उसके तौर-तरीकों पर सोचने के लिए मजबूर जरूर कर दिया है। सर्वशिक्षा अभियान हो या दूसरी योजनाएं सरकार ने अपना खजाना ही खोल दिया। शिक्षा के क्षेत्र में जितने बड़े नीतिगत फैसले हाल के वर्षो में हुए हैं, वह भी कम ही दिखता है, लेकिन वास्तविक धरातल पर अपेक्षित बदलाव न होना निराश करता है। आखिर ठंड में जमीन बैठकर पढ़ने वाले बच्चे अपनी दुर्दशा के लिए किसे जिम्मेदार मानेंगे?
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