Monday, 7 November 2011

दस्तखत के बिना बदली हुई वसीयत बेमतलब

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बदली हुई वसीयत में अगर वसीयत करने वाले के दस्तखत नहीं हैं, तो उसका कानूनी तौर पर कोई मतलब नहीं। बुधवार को जस्टिस जीएस सिंघवी और अशोक कुमार गांगुली की बेंच ने यह व्यवस्था दी। अदालत ने कहा कि जो लोग भी किसी बदली हुई वसीयत पर अधिकार जता रहे हों, उन्हें भारतीय उत्तराधिकार कानून के तहत साबित करना होगा कि वसीयत करने वाले ने खुद मूल वसीयत में बदलाव किए हैं। जस्टिस सिंघवी ने फैसले में लिखा, ‘कानून की धारा-71 में सहज भाषा में लिखा गया है। वसीयत में कोई बदलाव तब तक प्रभावी नहीं माना जाएगा, जब तक कि वह उसी तरह से न किया गया हो, जैसे मूल वसीयत बनाई गई थी।’ बेंच के अनुसार, वसीयत और बदली हुई वसीयत दोनों में ही वसीयत करने वाले या उसकी ओर से नियुक्त अधिकृत व्यक्ति के दस्तखत भी जरूरी हैं। अदालत ने यह फैसला कर्नाटक की याचिकाकर्ता दयानंदी की याचिका खारिज करते हुए दी। उन्होंने दावा किया था कि उनकी बहन रुकमा को पिता स्व. सिंगा गुजरान ने जायदाद से वंचित कर दिया था। गुजरान ने अपनी मौत से कुछ महीने पहले 25 मई 1987 को बनाई वसीयत में जायदाद को चार बेटियों-कल्याणी, दयानंदी, रुकमा और दीना के बीच बांटा था। गुजरान की मौत के एक साल बाद रुकमा ने अदालत में याचिका लगाई। इसमें बताया गया कि उनकी बहनें बदली हुई वसीयत के आधार पर जायदाद से उनका हिस्सा छीनने की कोशिश कर रही हैं। वसीयत में बदलाव 25 अगस्त 1987 को पिता की बीमारी के दौरान किया गया। सिविल कोर्ट ने रुकमा की याचिका खारिज कर दी। लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना कि छेड़छाड़ की गई वसीयत गैरकानूनी है। इस फैसले के विरोध में दयानंदी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।
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