ग्रामीण इलाकों में छह से चौदह वर्ष के बच्चों की शिक्षा पर जारी रपट ने जो तस्वीर पेश की है वह जितनी चिंताजनक है उतनी ही निराशाजनक। मानव संसाधन विकास मंत्री की ओर से जारी इस रपट के अनुसार कई राज्यों में कक्षा पांच के छात्र कक्षा दो की पुस्तक मुश्किल से पढ़ पा रहे हैं और तीसरी कक्षा के छात्रों को सामान्य जोड़-घटाव करने में भी कठिनाई पेश आ रही है। इसका सीधा मतलब है कि राज्य सरकारें और उनका तंत्र अपने बुनियादी दायित्व को पूरा करने के लिए गंभीर नहीं। इस पर संतोष जताने का कोई मतलब नहीं कि ग्रामीण इलाकों में 96 प्रतिशत छात्रों ने दाखिला ले लिया है, क्योंकि न तो उनकी उपस्थिति संतोषजनक है और न ही पढ़ाई-लिखाई का स्तर। पढ़ाई-लिखाई के स्तर को सुधारने की कहीं कोई गंभीर कोशिश नहीं हो रही, इसका प्रमाण यह है कि अभिभावक सरकारी स्कूलों से तौबा कर अपने बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में करा रहे हैं और जो ऐसा नहीं कर पा रहे वे अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की जरूरत महसूस कर रहे हैं। यह शिक्षा के साथ मजाक के अतिरिक्त और कुछ नहीं कि छह से चौदह वर्ष की आयु के बच्चे ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर हों। जिस देश में सरकारी स्कूलों की पढ़ाई ऐसी हो कि छोटी कक्षाओं के बच्चों को भी ट्यूशन पढ़ने के लिए विवश होना पड़े उसके भविष्य को लेकर सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। ग्रामीण इलाकों में निजी स्कूलों की बढ़ती संख्या और सरकारी स्कूल छोड़कर उनमें दाखिला लेने की बढ़ती प्रवृत्ति यह बताती है कि राज्य सरकारें इसके प्रति तनिक भी सजग-सचेत नहीं कि शिक्षा समाज और राष्ट्र के निर्माण की पहली सीढ़ी है। हर समय अपने अधिकारों को लेकर शोर मचाने और केंद्र पर दोषारोपण करने वाली राज्य सरकारों को इसके लिए कठघरे में खड़ा ही किया जाना चाहिए कि वे शिक्षा के ढांचे को दुरुस्त करने के प्रति तनिक भी गंभीर नहीं। इस संदर्भ में मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्य सरकारों पर जो दोष मढ़ा उसमें कुछ भी अनुचित नहीं। उन्होंने यह बिल्कुल सही कहा कि जब राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं करेंगी तो हालात कैसे सुधर सकते हैं? शिक्षा के ढांचे को ठीक करने और पठन-पाठन के स्तर को सुधारने को लेकर राज्य सरकारें गंभीर नहीं, इसके एक नहीं अनेक प्रमाण सामने आ चुके हैं। ज्यादातर राज्यों में योग्य शिक्षकों का अभाव तो है ही, एक बड़ी संख्या में शिक्षकों को ठेके पर रखा जा रहा है। राज्यों की अगंभीरता का एक बड़ा प्रमाण यह है कि छह से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून बनने के डेढ़ साल बाद भी अनेक राज्यों ने इस संदर्भ में आवश्यक अधिसूचना भी जारी नहीं की है। इस पर आश्चर्य नहीं कि पठन-पाठन के स्तर के मामले में दक्षिण भारत के राज्यों के मुकाबले उत्तर भारत के राज्यों की स्थिति गई बीती है, क्योंकि इन राज्यों के नीति-नियंता हर मामले में अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन में ढिलाई बरतने के लिए जाने जाते हैं। यदि वे शिक्षा के मामले में भी इसी तरह ढिलाई का परिचय देते रहते हैं तो इसका अर्थ है कि वे राष्ट्र की भावी पीढ़ी के साथ हो रहे अन्याय के दुष्परिणामों को समझने के लिए तैयार नहीं। केंद्र सरकार के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं कि वह राज्यों पर दोष मढ़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ले। उसे कुछ ऐसे उपाय खोजने ही होंगे जिससे राज्य सरकारें कम से कम शिक्षा के मामले में अपने दायित्वों के प्रति चेतें।