नई दिल्ली, एजेंसी : सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि सह आरोपी की स्वीकारोक्ति किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हो सकती क्योंकि अदालतें इस पर भरोसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। न्यायालय ने यह व्यवस्था हत्या के एक मामले में दो व्यक्तियों को दी गई उम्र कैद की सजा खारिज करते हुए दी। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने कहा कि सह आरोपी की स्वीकारोक्ति को अदालतें सच तक पहुंचने के लिए सहायता के तौर पर मान सकती हैं, लेकिन ऐसा तब ही होगा जब मुख्य सबूत भी इसी दिशा में हों। पीठ ने कहा, इसीलिए आरोपी के खिलाफ मामले में अदालत सह आरोपी की स्वीकारोक्ति से शुरुआत नहीं कर सकतीं। उन्हें अभियोजन पक्ष द्वारा पेश अन्य प्रमाण से शुरुआत करनी चाहिए। न्यायमूर्ति रंजना ने कहा कि पेश सबूत के आधार पर राय कायम करने के बाद, दोष के निष्कर्ष तक पहुंचने के सिलसिले में स्वीकारोक्ति पर विचार की अनुमति है। सत्र अदालत ने आठ फरवरी 1999 को फरीदाबाद के पलवल में एक किसान करतार सिंह की हत्या करने और उसका सामान लूटने की घटना के लिए तीन व्यक्तियों, प्रथम, पांचो और गजराज को दोषी ठहराया था। पांचो को मौत की सजा और दो अन्य दोषियों को उम्र कैद की सजा सत्र अदालत ने सुनाई थी। अदालत ने इसके लिए प्रथम द्वारा, करीब 40 किमी दूर एक अन्य गांव के निवासी और ग्राम पंचायत सदस्य नाथी सिंह के समक्ष दिए गए एक कथित स्वीकारोक्ति बयान पर भरोसा किया था। पंजाब और हरियाचा उच्च न्यायालय ने पांचो की मृत्युदंड की सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया और अन्य दो की उम्र कैद की सजा बरकरार रखी। इसके बाद दोनों दोषियोंच्ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। न्यायालय ने एक संविधान पीठ के 1964 में हरिचरण विरुद्ध बिहार राज्य मामले के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि भारतीय प्रमाण अधिनियम की धारा तीन के तहत सह आरोपी की स्वीकारोक्ति को प्रमाण नहीं समझा जा सकच। उच्चतम न्यायालय के अनुसार, धारा तीन अदालत को केवल स्वीकारोक्ति पर विचार करने की अनुमति देती है। पीठ ने कहा, लेकिन अदालतें इस पर भरोसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। पीठ ने कहा कि वर्तमान मामले में प्रथम की कथित स्वीकारोक्ति विश्वसनीय नहीं है और आरोपी को दोषी ठहराने के लिए इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।