अमरीश कुमार त्रिवेदी
कक्षा एक से आठवींतक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के बाद केंद्र सरकार ने इसका दायरा हाईस्कूल तक बढ़ाने का फैसला कर लिया है। मगर यह व्यवस्था कितनी कारगर होगी, यह अभी भी यक्ष प्रश्न बना हुआ है। इस फैसले से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार की मंशा एक जागरूक और शिक्षित समाज का निर्माण करने की बजाय सियासी लाभ लेने की है। सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता, उसका स्तर किसी से छिपा नहीं है। निजी स्कूलों और सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में जमीन-आसमान का अंतर है। ऐसे लोक-लुभावने कार्यक्रमों से यह तो प्रचारित होगा कि सरकार सभी को मुफ्त शिक्षा दे रही है, लेकिन इन स्कूलों से निकले बच्चे क्या उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में निजी स्कूलों के बच्चों से प्रतिस्पद्र्धा कर पाएंगे? वास्तव में यह सोचना ही बेमानी होगा। सरकार यह समझती है कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का कानून बना देने से सौ फीसदी साक्षरता का लक्ष्य हासिल हो जाएगा तो यह हास्यापद है। हां, आंकडे़बाजी से ऐसा मुमकिन भी हो सकता है। लेकिन माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तर पर छात्र-छात्राओं के पढ़ाई छोड़ने की वजह सिर्फ आर्थिक तंगी नहीं है। गुणवत्तापूर्ण और रोजगारपरक शिक्षा के अभाव में ऐसा हो रहा है। अभिभावक और बच्चों को लगता है कि दस-पंद्रह साल कलम घिसने की बजाय कोई हुनर सीखकर ज्यादा पैसा कमाया जा सकता है। बीए-एमए कर रोजगार के लिए मारे-मारे फिर रहे युवकों का हश्र उनके सामने है। वह देख रहे हैं कि पोस्ट ग्रेजुएट करने के बावजूद कैसे युवक तीन-चार हजार रुपये की नौकरी को तरस रहे हैं। सवाल उठता है कि शिक्षा को तकनीकी और रोजगारपरक बनाने की बजाय मुफ्त शिक्षा का ढिंढोरा पीटकर सरकार क्या हासिल करना चाहती है। सर्वशिक्षा अभियान पर अरबों रुपये फूंककर सरकार यह तो दावा ठोक रही है कि हम गरीबों और पिछड़ों के सामाजिक उत्थान के प्रति गंभीर हैं, मगर यह ढकोसले से कम नहींहै। सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है। एक या दो कमरे के विद्यालयों में एक से लेकर पांच अलग-अलग कक्षाओं के बच्चों को रखा जा रहा है। वहां न बिजली है और न पर्याप्त संसाधन। अगर अध्यापक बच्चों को वाकई काबिल बनाने के लिए कक्षाओं में मेहनत करते तो इन सुविधाओं के बिना भी काम चल सकता था, लेकिन इन स्कूलों की जमीनी हकीकत देखकर लगता है कि सबकी मंशा बच्चों को स्कूली बाड़े में रोकने की है। सरकारी अध्यापकों और सर्वशिक्षा अभियान से जुड़े अधिकारी सिर्फ आंकड़ेबाजी कर वाहवाही लूट रहे हैं। सारी कवायद बच्चों को मिड-डे मील खिलाने, आंकड़ों की खानापूरी करने के लिए दर्जनों रजिस्टर तैयार करने तक सीमित रह गई है। हाल ही में एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट में सामने आया है कि इन प्राथमिक स्कूलों के कक्षा पांच तक के बच्चे सामान्य गुणा-भाग तक करना नहीं जानते। उन्हें पढ़ाने की बजाय अध्यापक एक दो घंटे हाजिरी लगाकर मौज लूट रहे हैं। सरकारी शिक्षा का स्तर हम बरसों से देख रहे हैं। ज्यादातर सरकारी और वित्तीय सहायता प्राप्त माध्यमिक स्कूलों में बच्चों की संख्या न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। वहां अध्यापक नहीं हैं और पढ़ाई से लेकर परीक्षा तक अनुशासन नाम की चीज नहीं है। राज्य सरकारों की भी मंशा इन स्कूलों को आगे संचालित करने की नहीं है। निजी प्रबंधन भी करोड़ों की जमीन पर चल रहे इन स्कूलों को बंद कर अपना उल्लू सीधा करने में जुटा हुआ है। इन स्कूलों में पहले ही एक या दो रुपये की सांकेतिक फीस ली जा रही है। ऐसे में मुफ्त शिक्षा देकर कौन-सा चमत्कार हो जाएगा। दूसरी ओर निजी स्कूल अगर महंगी फीस ले रहे हैं तो वह गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा भी दे रहे हैं। हिंदी और अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों के बच्चे ही परीक्षा परिणामों और प्रतियोगी परीक्षाओं में टॉप कर रहे हैं। अब यह माना जा चुका है कि सरकार अपने नियंत्रण में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे सकती। अन्य क्षेत्रों में निजीकरण की पहल इसी मंशा को प्रतिबिंबित करती है। नौकरशाही के लचर रवैये और सरकारी अध्यापकों की आरामतलबी के आगे सरकार बेबस है। फिर न जाने क्यों सरकार उसी रास्ते पर चलना चाहती है, जबकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में वह पूर्ण निजीकरण या सरकारी निजी सहयोग के मॉडल पर काम कर रही है। सबको शिक्षा के अधिकार पर सरकार चालीस से पचास हजार करोड़ खर्च कर रही है, लेकिन नतीजा सिफर है। इन स्कूलों में मिलने वाली अधकचरी शिक्षा सामाजिक असंतोष को और बढ़ाएगी। शहरी स्कूलों से निकलने वाले बच्चे तो रोजगार और तरक्की हासिल कर पाएंगे, लेकिन गांवों और कस्बों के प्राइमरी स्कूलों के छात्र कुंठा और तनाव का शिकार होंगे। इससे वंचित वर्ग का शिक्षा से अलगाव और बढ़ेगा। सरकार को यह समझना होगा कि किसी भी कानून के जरिए किसी को पढ़ाई के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। आर्थिक प्रोत्साहन और प्रेरणा शिक्षा की ओर आकर्षित करती है। इसके बिना इंडिया और भारत का भेद कभी नहींमिटाया जा सकेगा। इसकी बजाय निजी स्कूलों में 25 फीसदी गरीब और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के दाखिले का फैसला ज्यादा मुफीद बैठता है। खुद विद्यालयों का संचालन कर और सरकारी अध्यापकों की फौज खड़ी कर सरकार वह हासिल नहीं कर पाएगी, जो पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के इस मॉडल से पाया जा सकता है। आर्थिक तंगी के शिकार परिवार, जो अपने बच्चों को गुणवत्ताविहीन सरकारी स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर थे, उनके बच्चे भी इस तरह से गुणवत्तापूर्ण और प्रतिस्पर्द्धी शिक्षा पा सकते हैं। साथ ही रोजगार भी हासिल कर सकते हैं। दम तोड़ चुकी सरकारी प्रणाली में अरबों फूंकने की बजाय अगर ऐसे स्कूलों को सरकार सब्सिडी मुहैया कराएगी तो सामाजिक न्याय और समानता का लक्ष्य पाया जा सकता है। जरूरत प्रेरणा, प्रोत्साहन, बेहतर माहौल और गुणवत्ता की है, न कि उपहार के तौर पर मुफ्त शिक्षा देने की। सरकार को चाहिए कि प्राथमिक विद्यालयों का निर्माण कर उनका संचालन निजी हाथों में सौंप देना चाहिए। वित्तीय सहायता मुहैया कराकर ऐसे स्कूलों में अनुशासन का डंडा भी चलाया जा सकता है और शिक्षा का बजट भी कम किया जा सकता है। इन स्कूलों में शत प्रतिशत गरीब बच्चों को ही भर्ती करने की योजना भी तभी कारगर होगी। इससे सरकारी शिक्षा का भारी-भरकम बजट भी कम होगा और संसाधन जुटाने भी सरकार को मेहनत नहीं करनी होगी। ग्रामसभा स्तर पर इन स्कूलों की निगरानी मौजूदा व्यवस्था पहले की तरह कायम रह सकती है। ग्रामसभा स्तर के मेधावी युवकों को शिक्षक के तौर पर नियुक्ति देकर सरकार दोहरा लक्ष्य हासिल कर पाएगी। एक ओर अध्यापकों और छात्रों पर पढ़ाई का नैतिक दबाव होगा तो दूसरी ओर स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। लाख टके की बात है कि सरकार संचालक और कर्ता की भूमिका छोड़कर प्रोत्साहक और निगरानीकर्ता की भूमिका में रहे तो संसाधन भी कम खर्च होंगे और अनुशासन का डंडा भी चलाया जा सकेगा।
केंद्र सरकार द्वारा आठवीं तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का दायरा बढ़ाकर हाईस्कूल तक किया जाना एक अनावश्यक और गैर जरूरी कदम है। जब देश में पहले से ही राइट टू एजूकेशन कानून लागू है तो इस नए पहल की आवश्यकता ही क्या थी? शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार तो बना दिया गया, लेकिन बच्चों को किस तरह गुणवत्ता और उपयोगी मिले ताकि वे निजी स्कूलों से पढ़कर निकलने वाले बच्चों के बराबर न सही, लेकिन कुछ तो समान हो सकें। इसके लिए जिस तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर और सरकार के सहयोग की जरूरत थी वैसी फिलहाल तो नहीं ही मिल पा रही है। यही कारण है कि इस योजना के लागू हुए काफी समय बीत जाने के बावजूद परिणाम कोई संतोषजनक नहीं है। बेहतर हो कि हम इस कानून को सफल बनाने के लिए कर्मठता और ईमानदारी से कुछ प्रयास करें ताकि देश में गरीब और गांवों में रहने वाले बच्चों को आगे बढ़ने का मौका मिल सके। यदि आंकड़ों के तौर पर गिनाने के लिए ही सरकार प्रयास करना चाहती है तो इससे न तो शिक्षा का विकास होगा और न ही इसका विस्तार। यही तमाम कारण हैं कि सरकारी स्कूलों के प्रति थोड़े बहुत भी शिक्षित और समर्थ लोगों का रुझान घट रहा है। कपिल सिब्बल द्वारा मुफ्त शिक्षा का दायरा बढ़ाने की जो नीति बनाई गई है उसका अमलीकरण वर्ष 2013 से पहले शुरू नहीं हो सकता है। हमारे देश में अगला लोकसभा चुनाव वर्ष 2014 में होने हैं। इस तरह साफ है कि योजना का उद्देश्य गरीब बच्चों को शिक्षा देने की बजाय चुनावों में लाभ हासिल करने की तैयारी है। कुल मिलाकर यह एक चुनावी अभियान का हिस्सा है, जिसके भरोसे शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और सभी को इसके लाभ से फलीभूत कराने की बात एक शिगूफा से ज्यादा कुछ नहीं है। आज हमारे देश में 10-12 लाख शिक्षकों की कमी है। इसके लिए शिक्षकों के पदस्थापन की प्रक्रिया शुरू करने की बजाय नित नई योजनाओं को शुरू करने मात्र से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। आज निजी स्कूलों की संख्या देश में तेजी से बढ़ रही है, जहां बच्चों से फीस के तौर पर मोटा पैसा उगाहा जाता है। आज यह एक बिजनेस का रूप ले लिया है, लेकिन हमारी सरकार इन स्कूलों को टैक्स से मुक्त रखी है। यह गलत है। सरकार अभी भी मानती है कि यह स्कूल गैर लाभकारी और सामाजिक संस्थाएं हैं जिस कारण इनसे टैक्स की वसूली नहीं की जानी चाहिए। यदि दिल्ली सरकार की ही बात करें तो यहां पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत स्कूलों में 25 प्रतिशत बच्चों को प्रवेश देने की नीति है, लेकिन इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन शायद ही किसी स्कूल में हो पाता है। इसके लिए इन स्कूलों के पास बहानों की भी कोई कमी नहीं होती। कई स्कूल तो ऐसे बच्चों के लिए अलग कक्षाएं संचालित करवाते हैं जिसमें न तो अच्छे शिक्षक होते हैं और न ही शिक्षा का कोई स्तर होता है। साफ है कि यह सब खानापूर्ति के लिए ही किया जाता है। यदि सरकार चाहे और दृढ़ता दिखाए तो इस स्थिति में बदलाव आ सकता है और ऐसे बच्चों के लिए अलग से कक्षाएं चलाए जाने की बजाय सामान्य कक्षाओं में बैठने की व्यवस्था कराई जा सकती है। शिक्षा के मामले में देश में जिस तरह की स्थिति है उसे देखते हुए हम यह नहीं कह सकते कि सरकार इसके प्रति तनिक भी प्रतिबद्ध है। शिक्षा का व्यवसायीकरण और माफियाकरण हो गया है। इसके लिए बाकायदा लॉबिइंग की जाती है और अधिक से अधिक लाभ पाने और कमाने के लिए हरसंभव उपाय अपनाए जाते हैं। बेहतर तो यह होगा कि नई योजनाओं को लागू करने से पहले पुरानी योजनाओं के क्रियान्वयन पर ध्यान दिया जाए और उन्हें ही बेहतर व सशक्त बनाया जाए। शिक्षा में आज अधिक पारदर्शिता की जरूरत है। इसके लिए न केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है बल्कि इसे अधिक पेशेवर ढंग से और जवाबदेही से चलाने के लिए ईमानदारी की भी आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि हर कोई अपनी जिम्मेवारी की खानापूर्ति करने की जल्दी में है। शिक्षा के प्रति हमारी प्राथमिकता में आज बदलाव की आवश्यकता है। आज हमें रोजगारपरक, गुणवत्तापूर्ण और बेहतर शिक्षा की जरूरत है। इसके लिए दूरदर्शी नीतियों के निर्माण व क्रियान्वयन की आवश्यकता है। सिर्फ नई नीतियों अथवा योजनाओं को बना देने भर से कुछ खास नहीं हासिल होने वाला है।
जगमोहन सिंह राजपूत
(लेखक एनसीआरटी के पूर्व निदेशक हैं)