Sunday, 20 November 2011

अफसरों को ही सरकारी स्कूलों पर भरोसा नहीं

गौरव दीक्षित, मेरठ खर्च के मामले में सरकारी स्कूल प्राइवेट स्कूलों से बहुत आगे हैं। इनकी गुणवत्ता में सुधार के लिए शासन की ओर से कोई कोर कसर बाकी नहीं है। सरकारी और प्राइवेट शिक्षकों के वेतनमान में भी जमीन -आसमान का अंतर है, पर पढ़ाई-लिखाई की बात करें तो हालात एकदम उलट हैं। शायद यही अकेली वजह है कि सरकारी शिक्षकों-अफसरों के बच्चे इन स्कूलों की ओर झांकना तक गंवारा नहीं करते। यह है सर्वशिक्षा अभियान का स्याह सच। सरकार सर्वशिक्षा अभियान पर हर साल अरबों रुपये खर्च करती है। इस अभियान के अलंबरदार यानी शिक्षा अधिकारी, शिक्षक व प्रशासनिक अधिकारी दूसरे के बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए प्रेरणा के तौर पर लंबी-चौड़ी बयानबाजी करते हैं, योजनाएं बनाते हैं, लेकिन उन्हें खुद उन स्कूलों पर भरोसा नहीं है, जिनकी नींव वे खुद रखते हैं। मेरठ के बीएसए गजेंद्र सिंह को ही ले लीजिए। जिले के पांच सौ से अधिक सरकारी प्राथमिक स्कूलों के मुखिया हैं। आवास, गाड़ी, नौकर और सेवक सब कुछ सरकारी है, लेकिन अपने बच्चों को पढ़ाने का नंबर आया तो इन्होंने निजी स्कूलों को तरजीह दी। यह कोई बीएसए साहब का ही अकेला मामला नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक 90 फीसदी सरकारी मुलाजिमों के बेटे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि अधिकारी वर्ग में तो यह संख्या सौ फीसदी है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले 85 फीसदी शिक्षकों के बेटे प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। और तो और देश भर में माध्यमिक शिक्षा के मामले में अग्रणी माने जाने वाले केंद्रीय विद्यालयों में भी अफसरों के बच्चे कमोबेश नदारद हैं।

यह सच है कि अफसर निजी स्कूलों के ग्लैमर में अपने बच्चों को सरकारी स्कूल नहीं भेजते। स्कूलों में आधारभूत ढांचा कमजोर होना भी एक वजह है। — अशोक कुमार सिंह, अपर निदेशक, बेसिक शिक्षा
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