देश में प्राथमिक शिक्षा की दयनीय दशा और मिड-डे मील में बढ़ते भ्रष्टाचार पर निराशा जता रहे हैं डॉ. विशेष गुप्ता:
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय समिति ने देश की प्राथमिक शिक्षा से जुड़े दो प्रमुख ज्वलंत मुद्दों पर राज्य सरकारों से जवाब-तलब किया है। इसमें पहला मुद्दा मिड-डे मील में बढ़ते भ्रष्टाचार का है तो दूसरा प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों की नामांकन संख्या में आ रही लगातार गिरावट का है। उल्लेखनीय है कि मिड-डे मील योजना स्कूलों में गरीब तबकों के बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराने के लिए लागू की गई थी और उम्मीद की गई थी कि इससे स्कूलों में ड्रापआउट रेट अर्थात बीच में ही पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या की दर को घटाने में मदद मिलेगी। साथ ही साथ उनका पोषण स्तर भी ठीक रहेगा। उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखंड समेत आधा दर्जन राज्यों ने इस योजना की धनराशि दूसरे मदों में खर्च करने की बात स्वीकार की है। इसे लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कड़ी नाराजगी जाहिर करने के साथ ही योजना प्रबंधन के तौर-तरीकों पर भी नए सिरे से विचार करने की बात कही है। देश में सर्वप्रथम मिड-डे मील योजना 1960 में तमिलनाडु में शुरू हुई थी। योजना की सफलता देखते हुए बाद में इसका अनुकरण गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान सरकारों ने भी किया। इस योजना का प्रमुख उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के विस्तार में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करना था। 28 नवंबर 2001 को उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश के बाद यह योजना देश के सभी सरकारी एवं सहायता प्राप्त स्कूलों में शुरू हुई, लेकिन मिड-डे मील योजना आज भ्रष्टाचार का एक लाभकारी साधन बनकर रह गई है। पिछले साल अप्रैल में केंद्र सरकार ने बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाते हुए शिक्षा अधिकार कानून लागू किया। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा के मद में अतिरिक्त बजट दिया गया, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा। आंकड़े बताते हैं मिड-डे मील योजना ने देश की प्राथमिक शिक्षा का बहुत भला नहीं किया है। 2007 के बाद से पूरे देश में प्राथमिक स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में अच्छी-खासी गिरावट आई है। 2008 से 2010 के बीच कक्षा एक से लेकर कक्षा चार तक के बच्चों का नामांकन 26 लाख घटा है। केवल उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो पिछले दो वर्षो में दस लाख नामांकन घटे हैं। इसके अलावा बिहार, राजस्थान, तमिलनाडु में भी बच्चों का नामांकन लगातार घट रहा है। इस मामले में असम सर्वाधिक प्रभावित राज्य है। आजादी के बाद 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी। इसके तहत ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, अनौपचारिक शिक्षा तथा महिला समाख्या के अलावा आंध्र प्रदेश में बेसिक शिक्षा परियोजना, राजस्थान में लोक जुंबिश तथा उत्तर प्रदेश में सर्वशिक्षा अभियान तथा जिला प्राथमिक शिक्षा जैसे प्रमुख कार्यक्रम रहे हैं। इन सभी परियोजनाओं का मूल उद्देश्य बुनियादी शिक्षा के माध्यम से देश में सामाजिक न्याय और समानता स्थापित करना था। पिछले छह दशकों में देश की प्राथमिक शिक्षा में तीस गुना तथा उच्च प्राथमिक शिक्षा में चालीस गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई है। बावजूद इसके प्राथमिक शिक्षा की तस्वीर धुंधली नजर आती है। छह से 14 वर्ष तक के दो करोड़ बच्चों में से आधे बच्चे भी स्कूलों तक नहीं पहुंच रहे हैं और मिड-डे मील योजना के बावजूद भी ड्रापआउट दर बहुत अधिक है। शिक्षा का बुनियादी ढांचा कमजोर है तथा शिक्षण दिनचर्या भी उबाऊ है। उच्चतम न्यायालय के मुताबिक पूरे देश में लगभग 1800 स्कूल टेंट और पेड़ों के नीचे चल रहे हैं। 24 हजार स्कूलों में पक्के भवन नही हैं। एक लाख से भी अधिक स्कूलों में पीने के पानी का प्रबंध नहीं है तथा 45 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालयों जैसी सुविधाओं का अभाव है। लाखों शिक्षकों के पद आज भी रिक्त हैं। राज्य सरकारें बजट की कमी का तर्क देकर अल्प वेतन पर शिक्षामित्र, शिक्षाकर्मी तथा पैरा टीचर्स की नियुक्ति करके कामचलाऊ व्यवस्था चला रही हैं। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद 14 वर्ष तक के बच्चों को नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा देना आज संवैधानिक मजबूरी बन गई है, लेकिन इस हेतु बजट के लिए हमें विदेशी संस्थाओं का मुंह ताकना पड़ता है। विकास के जिस अंग्रेजी मॉडल का अनुकरण किया गया उससे हमारी मातृभाषा से जुड़ी प्राथमिक शिक्षा पृष्ठभूमि में चली गई। देश की संसद को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून बनाने में छह दशक लग गए। नि:संदेह आज राष्ट्र की प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी मिड-डे मील योजना के संचालन में भ्रष्टाचार एक गंभीर चिंता का विषय है। देश के प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे के निरंतर कमजोर होने का यह परिणाम रहा कि राष्ट्र के अहसास से जुड़ी बुनियादी सस्थाएं भी कमजोर होती चली गई। इस संबंध में भ्रष्टाचार का समाजशास्त्र बताता है कि जब लोग अपने राष्ट्र के नैतिक चरित्र से कट जाते हैं तो उनमें चारित्रिक विचारधारा का लोप होने लगता है। देश की बुनियादी शिक्षा तक उनके लिए स्वार्थसिद्धि और खुदगर्जी का साधन बन जाती है। राष्ट्र में जवाबदेही के वातावरण का निर्माण हो, इसके लिए प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता से जुड़े लोगों का आसीन होना जरूरी है। प्राथमिक शिक्षा किसी भी देश की रीढ़ होती है और जब किसी देश की रीढ़ टूटती है तो आकर्षक से आकर्षक इमारतें भी भरभराकर गिरने लगती हैं। देश की प्राथमिक शिक्षण संस्थाओं के साथ आज भी यह क्रम जारी है। यदि देश में मिड-डे मील जैसी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करना है तो प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे को न केवल मजबूत बनाना होगा, बल्कि शिक्षक व शिक्षण की गुणवत्ता को भी बढ़ाना होगा। इस काम को किए बिना प्राथमिक शिक्षण को मजबूत नहीं बनाया जा सकता। (लेखक समाज शास्त्र के प्राध्यापक हैं)